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________________ ( २०१ ) पूर्वास्यां देवरमणो, नित्योद्योतस्वयंप्रभौ । क्रमादपाक्प्रतीच्यां चोदीच्यां च रमणीयकः ॥ १३२ ॥ पूर्व दिशा में रमण नाम का, दक्षिण दिशा में नित्योद्योत नाम का पश्चिम दिशा में स्वयंप्रभ नाम का उत्तर दिशा में रमणीयक नाम का अंजन गिरि है । (१३२) वर्णशोभां वर्णयामः किमतेषा स्फुरद्रुचाम् । नाम्नैव ये स्वमौज्जवल्यं, प्रथमन्ति यथास्थितम् ॥१३३॥ स्फुरायमान कान्ति वाले इन अंजनाचलो की तेजस्विता का क्या वर्णन करे ? क्योंकि वे अपने नाम से ही यथा स्थित अपनी उज्जवलता को फैलाते हैं । (१३३) स्फुरद्भवलस ब्रह्मचारितेजोभिरास्तृतैः । तेऽमुं द्वीपं सृजन्तीव, कस्तूरीद्रव मण्डितम् ॥१३४॥ अंजन गिरि का स्वरूप कहते है :- तेजस्वी गवल के तेज किरणों के समान विस्तार वाले अपने तेज द्वारा यह पर्वत मानो इस द्वीप को कस्तुरी के द्रवस्नेह से विलिप्त करता हो इस तरह लगता है । (१३४) स्वच्छ गोपुच्छ संस्थाना स्थिता रजोमलोज्झिताः । अभ्रङ्कषीत्तूङ्ग शृङ्गा, मृष्टाः श्लक्ष्णाः प्रभा स्वराः ॥ १३५ ॥ सहस्त्रांश्चतुरशीतिं भूतलाते समुच्छ्रिताः । सहस्त्रं च योजनानावमगाढा भवोऽन्तरे ॥१३६॥ योजनानां सहस्राणि, पृथवो भूतले दश । योजनानां सहस्त्रं च विस्तीर्णास्ते शिरस्तले ॥१३७॥ मतान्तरे शतान्येते, चतुर्णवति मातताः । स्युर्भूतले योजनानां, सहस्त्रं मूर्ध्नि विस्तृताः ॥ १३८ ॥ चतुर्भिः कलापकं ॥ स्वच्छ गोपुच्छ के आकार से रहे रज और मल से रहित गगनोत्तुंग शिखरों को धारण करते और अति तेजस्वी ये पर्वत पृथ्वी से चौरासी हजार योजन ऊंचे हैं, जबकि पृथ्वी के अन्दर एक हजार योजन अवगाह हुआ है, पृथ्वी की सपाटी ऊपर
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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