________________
(१६७)
अस्य द्वादश लक्षाढया, विष्कम्भभसः पन्च कोटयः ।
योजनानां परिधिस्तु, स्वयं भाव्यो मनीषिभिः ॥ १०८ ॥
इस क्षीर सागर की पांच करोड़ और बारह लाख (५, १२, ००, ०००) योजन का चौड़ाई है और परिधि तो स्वयं बुद्धिशालियों जान लेना चाहिए । (१०८)
परतो ऽस्मात्पयोराशेद्वपो धृतवराभिधः ।
धृत तुल्यं जलं वाप्यादिषु यस्येत्यसौ तथा ॥१०६॥
1
धृतावर्णौ च कनक कनक प्रभ नामकौ । स्वामिनाविह तद्योगात्, ख्यातो धृत वराभिधः ॥ ११० ॥
इस समुद्र के बाद चारों तरफ फैला घृतवर नाम का द्वीप है, उनकी वावड़ी आदि में घृत (घी) के समान पानी है, इससे वह घृतवर द्वीप कहलाता है अथवा कनक और कनक प्रभ नाम के दो देव जो घृत समान वर्ण वाले हैं । वे इस द्वीप के स्वामी होने से यह द्वीप घृतवर नाम से प्रसिद्ध है । (१०६-११०)
चतुर्विंशति लक्षाढया, दश योजन कोटयः ।
व्यासोऽस्य परिधिर्ज्ञेयः, स्वयं व्यासानुसारतः ॥१११॥
एवमग्रेऽपि ।
इस द्वीप का व्यास, दस करोड़ चौबीस लाख (१०, २४, ००, ०००) योजन है और इस व्यास के अनुसार से परिधि स्वयं समझ लेना । इस तरह से आगे भी समझ लेना. । (१०१)
द्वीपादस्मात्परो वार्द्धिघृतोदाख्यो विराजते । है यङ्गं वीनसुरभिस्वादुनीर मनोरमः
॥११२ ॥
अयं कान्त सुकान्ताभ्यां स्वामिभ्यां परि पालितः । वाणिजाभ्यां घृतकुतूरिव साधारणी द्वयोः ॥११३॥
इस द्वीप से आगे घृतोद नामकं समुद्र शोभायमान है जोकि घी समान सुगंधमय स्वादिष्ट पानी से मनोहर है । दो के बीच में एक साधारण घी के कुंडे को जैसे दो व्यापारी संभाल कर रखते है वैसे कान्त और सुकान्त नामक दो देवों से अधिष्ठित है ।