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(१६६) जिनस्नात्रार्थकलशैरलङ्क ततटद्वयः । गुरुः शुश्रुषुभिः शिष्यैरिव स्वच्छामृतार्थिभिः ॥१०३॥
देवताओं द्वारा जिन स्नात्र के लिए जल भरकर तैयार किये कलशों से जिसके दोनों किनारे शोभ रहे है ऐसा यह समुद्र गुरुसेवा की इच्छा वाले शिष्यों से अलंकृत गुरु के समान शोभता है । (१०३)
दिव्यकुम्भेष्वाहरत्सु प्रणम्य सिरसोदकम् । ... लोलत्कल्लोलनिनदैरनुज्ञां वितरन्निव ॥१०४॥
मस्तक द्वारा नमस्कार करके स्वच्छ अमृत के अर्थी देवों द्वारा दिव्य कुभों में पानी लेते समय तरंग कल्लोल के आवाज-घोष द्वारा मानो यह क्षीर सागर अनुज्ञा दे रहा है । (१०४)
समन्ततस्टोद्भिन्नचलद् बुद्बुददन्तुरः । ताटङ्क इव मेदिन्याः, स्फुरन्मौक्तिक पंक्तिकः ॥१०५॥
इस क्षीर सागर के चारों तरफ किनारे पर उत्पन्न होते चपल बुलबुल मानो' उज्जवल दांत वाला हो तथा यशमान मोतियों की पंक्ति से शोभायमान मानो पृथ्वी का हार हो ऐसा आभास होता है । (१०५) .
लोलकल्लोल संघटओच्छलच्छीकरकैतवात् । सिद्धान्नभोगतान् मुक्ता करणैरवकिरन्निव ॥१०६॥
चपल तरंगों के परस्पर टकराने से उछलते पानी के बिन्दु के बहाने से मानो मुक्तागणों द्वारा आकाश में स्थिर रहे सिद्धात्मा को चावल से बधाते (स्वागत करते) हो इस तरह यह समुद्र दिखता है । (१०६)
धृतो निर्णिज्य विधिनातपाय स्थिरभास्वताम्। .. शोभतेऽसौमध्यलोकनिचोलक इवोज्जवलः ॥१०७॥ सप्तभिः कुलकं ।
स्थिर सूर्य के आतप के लिए मानो ब्रह्मा द्वारा स्थिर करके धारण किया हो इस प्रकार यह समुद्र मध्यलोक रूपी चंदरवा (चंदोवा-चांदनी) मध्य में लटकते उज्जवल गुच्छा के समान शोभता है । (१०७)