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________________ (१६५) तथा च - जीवाभिगम सूत्रे - "खंडमच्छंडि ओववेए रण्णो चाउरंत चक्क वट्ठिस्से".त्यादि। और जीवाभिगम सूत्र में कहा है कि - चतुरंत चक्रवर्ती राजा की खांड और मत्संडी खांड से विशेष मधुर द्रव्य से युक्त जो द्रव्य हो वैसा यह होता है इत्यादि। क्षीरोज्जवलाङ्ग विमल विमल प्रभदेव योः ।। सम्बन्धि सलिलं ह्यस्येत्यपि क्षीरोद वारिधिः ॥१०॥ क्षीर समान उज्जवल शरीर वाले विमल और विमलप्रभ इस समुद्र के अधिष्ठायक देव होने से इस समुद्र का दूसरा नाम क्षीरोदवारिधि है । (१००) जिन जन्मादिषु कृतार्थोदकत्वादिवोल्लसन् । समीर लहरी संगरङ्गत्कल्लालकै तवात् ॥१०१॥ श्री तीर्थकर भगवान के जन्म कल्याण के उत्सव आदि प्रसंगों पर उस पानी का उपयोग होने के कारण पवन की लहर के संग से उछलते कल्लोल-तरंगों के बहरने से अपने कृतार्थता से वह पानी मानो उल्लास व्यक्त करता है । (१०१) : गुरु श्री कीर्ति विजय यशोभिस्तुलितो बुधैः । __ इत्युद्भूताद् भूतानन्दाद्, द्विगुणश्चैत्यवानिव ॥१०२॥ गुरुदेव श्री कीर्ति विजय जी महाराज के अति उज्जवल यश के साथ में पंडितों द्वारा अपनी तुलना की है । ऐसा जानकर, उस कारण से उत्पन्न हुआ अद्भुत आनंद से मानो यह समुद्र दो गुणा श्वेतता को प्राप्त करता है । ____ यहां ग्रन्थकोर ने क्षीर समुद्र की धवलता को उत्प्रेक्षा अलंकार द्वारा बताया है पूज्य गुरुदेव श्री कीर्ति विजय जी महाराज की अति उज्जवल यशोराशि के साथ में पंडितों द्वारा अपने यश की तुलना की है, ऐसा जानते उससे अनहद आनंद उत्पन्न हुआ है । और इससे ही क्षीर समुद्र की उज्जवलता द्विगुण बन गयी है ।' यहां केवल गुरुदेव के पक्ष में एक ही अपेक्षा से यह श्लोक रचा हो ऐसा लगता है । उनका गुरु के प्रति भक्तिभाव अनहद था । आगे भी इसी तरह गुरुदेव का स्मरण उन्होंने किया है । (१०२)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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