SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१६३) .. चतुःषष्ठिर्योजनानां, लक्षाणि चैष विस्तृतः । चक्रवालतया ज्ञेयः परिधिस्त्वस्य पूर्ववत् ॥८॥ इस पुष्करादि समुद्र के बाद वारूणीवर नाम का द्वीप आता है । इस द्वीप की बावडी आदि में पानी, वारूणी मदिरा के स्वाद समान है तथा वरूण और वरूण प्रभ नाम के दो देव इस द्वीप के स्वामी है इस कारण से इस द्वीप को वरूणवर भी कहते है । इस द्वीप का विस्तार गोलकार चौंसठ लाख (६४,००.०००) योजन है और इसकी परिधि पूर्व के समान अर्थात व्यास के आधार पर विचार करना । (८६-८८) वारूणीवरोदनामा, द्वीपादस्मात्परोऽम्बुधिः । मदकारिवरास्वादोदक प्रारभरभासुरः ॥८६॥ इस द्वीप के आगे वारूणी वरोद नामक समुद्र आता है । जो मादक और स्वादिष्ट पानी के समूह से शोभायमान है । (८६) 'सजातपरमद्रव्य सम्मिश्रमदिरारसात् । अति स्वादूदक योगात्, ख्यातो ऽयं ताद्दशाभिधः ॥६०॥ ..: सुन्दर रूप तैयार किया और श्रेष्ठ द्रव्य से युक्त मदिरा के रस सद्दश अति स्वाद वाला पानी से युक्त यह समुद्र वारूणी वरोद नाम से प्रसिद्ध है । (६०) .: वारूणि वारूण कान्त स्वामिकयोगतोऽथवा । . . स्याद्वारूण वरोदाख्यो, वरूणोदोऽप्ययं भवेत् ॥११॥ . अथवा वारूणी और वारूणकांत नाम के अधिष्ठायक देव के सम्बन्ध से यह वारूण वरोद नाम से भी प्रसिद्ध है । (६१) .. एका योजन कोटयष्टाविंशत्या लक्षकैः सह । चक्रवालतयैतस्य, विस्तारो निश्चितो बुधैः ॥६॥ यह समुद्र गोलाकार है इसका विस्तार बुध पुरुषों ने एक करोड़ अटठाईस लाख (१२८०००००) योजन का कहा है । .. अथ क्षीखरो द्वीपः परतोऽस्मात्पयो निधेः । क्षीरोंपमं जलं वाप्यादिषु यस्येत्यसौ तथा ॥६३॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy