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________________ (१६२) परतः पुष्कर द्वीपात्पुष्करोदः पयोनिधिः । समन्ततो द्वीपमेनमवगूह्य प्रतिष्ठितः ॥१॥ पुष्करवर द्वीप के बाद पुष्करोद नाम का समुद्र आता है यह समुद्र द्वीप के चारों तरफ से लपेटा हुआ है । (८१) अतिपथ्यमतिस्वच्छं, जात्यं लघु मनोरमम् । स्फुटस्फटिकरत्नाभमस्य वारि सुधोपमम् ॥८२॥ ... इस समुद्र का पानी, अतिपथ्य अति हितकारी, सुन्दर, स्वच्छ, श्रेष्ठ जाति का वजन में लघु, आह्लाद शुद्ध स्फटिक रत्न की प्रभा समान उज्जवल और अमृत समान है । (८२). सदा सपरिवाराभ्यां, भासुराभ्यां महौजसा । श्रीधर श्रीप्रभाभिख्दैवताभ्यामहर्निशम् ॥८३॥ . परिवार युक्त महातेज से देदीप्यमान श्रीधर और श्रीप्रभनाम के दो देवताओं द्वारा यह समुद्र हमेशा शोभायमान है । (८३) इन्द्वर्काभ्यां पुष्करवद्विभात्यस्योदकं यतः । पुष्करोदस्तत एष, भुवि ख्यातः पयोनिधिः ॥८४॥ सूर्य और चन्द्र द्वारा उसका पानी मानो कमलयुक्त हो उस तरह शोभता है, इस से यह समुद्र, पृथ्वी ऊपर पुष्करोद नाम से प्रख्यात है । (८४) अस्य योजन लक्षाणि, द्वात्रिंशच्चक्रवालतः । विस्तार: परिधिस्त्वस्य, भाव्यो व्यासानुसारतः ॥५॥ इस समुद्र का विस्तार गोलाकार से बत्तीस लाख योजन है और इसकी परिधि व्यास अनुसार से समझ लेना चाहिए । (८५) परतः पुष्कराम्भोधेीपोऽस्ति वारूणीवरः । . सद्वारूणीव वाप्यादौ, जलमस्येत्यसौ तथा ॥८६॥ देवौ द्वावत्र वरूण वरूणप्रभसंज्ञितौ । तत्स्वामिकत्वाद्वरूणवरोऽप्येष निगद्यते ॥८७॥ .
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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