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(१६१) श्रेणिः परिरयाख्यैव, मतयोरेतयोर्द्वयोः । न तु सूचीश्रेणिस्त्र, वेत्ति तत्वं तु केवली ॥८०॥
इन दोनों मत में श्रेणी गोलाकार से समझना-परिरय श्रेणि है परन्तु सूची श्रेणी नहीं है । इस विषय में तत्व तो केवली ज्ञानी जानते है । (८०) ___ योगशास्त्र चतुर्थ प्रकाशवृत्तावप्युक्तं - मानुषोत्तरात्परतः पन्चाशता योजन सहस्त्रैः परस्पर मन्तरितरिश्चन्द्रान्तरिताः सूर्याः सूर्यान्तरिताश्चन्द्राः मनुष्यक्षेत्रीय चन्द्र सूर्य प्रभाणाद् यथोत्तरं क्षेत्रपरिधेर्वृद्धया संख्येया वर्द्धमानाः शुभ लेश्या ग्रह नक्षत्र तारा परिवारा घंटाकारा असङ्खयेया आस्वयंभूरमणाल्लक्ष-योजनान्तरिताभि: पंक्तिभिस्तिष्ठन्ती"ति,तथापरिशिष्ट पर्वण्यपि श्री हेमचन्द्र सूरिभिः परिरय श्रेणि रेवोपमिता, तथाहि राजगृह वप्रवर्णने
तत्र राजत सौवणैः, प्राकार: कपिशौर्षकैः । भाति चंद्रांशुमद्विम्बैर्मयोत्तर इवाचलः ॥१॥
इति परिरय श्रेणिः ॥ : योगशास्त्र के चौथे प्रकश की टीका में भी कहा है कि - मानुषोत्तर पर्वत से आगे पचास हजार योजन के अन्तर में चन्द्र और पचास हजार योजन के अन्तर में सूर्य रहा है, वह इस तरह - चन्द्र, सूर्यान्तरित है और सूर्यो चन्द्रांतरित है ये चन्द्र सूर्य विमान से ऊंचा है ? उसका वर्णन करते हुए कहते हैं :- मनुष्य क्षेत्र के चन्द्र, सूर्य विमानों के प्रमाणं से आगे से आगे क्षेत्र की परिधि की वृद्धि के कारण से संख्यात गुणा, शुभ लेश्या (शुभ कान्ति) वाले ग्रह, नक्षत्र, तारों के परिवार से युक्त घंटा आकार वाले असंख्यात् चन्द्र, सूर्य अन्तिम स्वयं भूरमण समुद्र तक लाख-लाख योजन के अन्तर में पंक्तिबद्ध रहे हैं ।
' परम पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य भगवन्त श्री हेमचन्द्र सूरीश्वर जी महाराज ने परिशिष्ट पर्व में भी परिरय श्रेणि की ही उपमा दी है, वह इस तरह से राजगृह नगर के वप्र के वर्णन में कहा है कि जैसे चन्द्र सूर्य के बिम्ब द्वारा मानुषोंत्तर पर्वत शोभायमान है वैसे रजत सुवर्ण के कांगार से राजगृह नगर शोभता है । (१) यह परिचय श्रेणि है ।