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(१८८) योजन के अंतर में रहे चन्द्र और सूर्य की प्रथम पंक्ति में एक सौ पैंतालीस चन्द्र
और उतने ही सूर्य होते हैं और उसके बाद लाख-लाख योजन के अन्तर में प्रत्येक पंक्ति है और जो-जो द्वीप अथवा समुद्र जितने लाख योजन की चौड़ाई वाले हो वहा उतनी सूर्य चन्द्र की पंक्तियां जानना और दूसरी पंक्ति में छ:-छः चन्द्र सूर्य की वृद्धि और तीसरे में सात-सात चन्द्र, सूर्य की वृद्धि होती है, और वहां फिर प्रत्येक दो पंक्ति में छ:-छः की वृद्धि और तीसरे में सात-सात की वृद्धि होती है । (६०-६४) इस तरह दिगम्बर का मत पूर्ण होता है । . ...
मतान्तरं करणविभावनायामिदं स्मृतम् । लक्षा तिक्रमे पंक्तिराद्या मत्योत्तराचलात् ॥६५॥ ...
दीप समुद्र में चन्द्र, सूर्य की संख्या विषयक करण की विचार करने में इससे दूसरा मत भी कहते हैं कि - मानुषोत्तर पर्वत के बाद पचास हजार योजन जाने के बाद प्रथम पंक्ति चन्द्र, सूर्य की आती है । (६५)
द्विसप्ततिः शशभृतां, द्वि सप्ततिश्च भास्वताम् । चतुश्चत्वारिंशमाद्य पङ्क्तावेवं शतं भवेत् ॥६६॥
उस प्रथम पंक्ति में बहत्तर (७२) चन्द्र और उतने ही सूर्य होते है इन दोनों को मिलाकर एक सौ चवालीस (१४४) होते है । (.६६)
यावद्योजनलक्षाणि, द्वीपः पाथोनिधिश्च यः । पक्तयस्तत्र तावत्यो, मतेऽत्रापि समं ह्यदः ॥६७॥ .
इस मतानुसार भी जितने लाख योजन प्रमाण द्वीप अथवा समुद्र हो उतनी पंक्ति में चन्द्र और सूर्य कहे हैं । यह बात दोनों मतानुसार समान है । (६७)
भान्विन्द्वोः समुदितयोस्ततः शेषासु पंक्तिषु । चतुष्कस्य चतुष्कस्य, वृद्धिलॊकान्तसीमया ॥६८॥ ...
परन्तु इस मत के अनुसार प्रत्येक पंक्ति में दो-दो चन्द्र और सूर्य मिलकर चार-चार की वृद्धि लोकान्त तक जानना । (६८)
एवंच पंक्तावष्टभ्यां द्वीपाद्धेऽनेन्दु भास्वताम् । संजातं समुदितानां, द्विसप्तत्यधिकं शतम् ॥६६॥