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(१८७) लोकान्तं यावदाधिक्यमेवमिन्दुविवस्वताम् । वाच्यमेवं पुष्करोत्तरार्द्धऽष्टास्वपि पङ्कित षु ॥८॥
चौथी और पांचवी,पंक्ति की परिधि में छ:-छः लाख की वृद्धि हो जाने से चौथी और पांचवी पंक्ति में छ:-छः सूर्य चन्द्र की वृद्धि होती है और फिर भी जो छठी पंक्ति है उसमें सात लाख की वृद्धि हो जाने से वहां सात-सात चन्द्र सूर्य की वृद्धि होती है और फिर आगे की दो पंक्ति में छः-छ: चन्द्र सूर्य की वृद्धि होती है, इस तरह लोकांत तक चन्द्र, सूर्य की वृद्धि करते जाना चाहिए । (५७-५८)
- सप्तत्रिंशदधिकानि, शतान्येव त्रयोदश ।।
प्रत्येकमिन्दु सूर्याणां, भवन्ति सर्व संख्यया ॥५६॥
पुष्करार्ध द्वीप के उत्तरार्ध में आठ पंक्तियों में तेरह सौ सताईस (१३२७) और उतने ही (१३२७) सूर्य की संख्या कहीं है । (५६) एतदर्थ संग्राहिकाश्च पूर्वाचार्यकृता एव इमा गाथा: - "माणुस न गाओं परओ लक्खद्धे होई खेत्त विक्खंभो । छायालीसं लक्खा परिही तस्सेग कोडी उ ॥६०॥" ..पणयालीसंलक्खा छयालीसंचजोअणसहस्सा।
चउरो सयाई तह सत्तहत्तरी जोअणाणं तु ॥१॥ साहि अ जो अण लक्खद्धंगतरठिय ससीण सूराणं। पंतीए पढमाए पणयालसयं तु पत्तेयं ॥२॥ तप्परओ पंतीओ जोअण लक्खंत राओ सव्वाओ। जो जइलक्ख दीवुदहि तत्थ तावइय पंतीओ ॥६३॥ वुड ढी दुइयगपंतीओ छण्ह तइयाए होइ सत्तण्हं। तप्परओ दुदुपंती छग वुड्ढी तइस सग वुड्ढी ॥६५॥
इसी अर्थ का प्रतिपादन करती पूर्वाचार्य कृत गाथाएं इस तरह है:मानुषोत्तर पर्वत बाद पचास हजार योजन जाने के बाद, वहां के क्षेत्र की चौड़ाई छियालीस लाख योजन की होती है, और उसकी परिधि एक करोड़ पैंतालीस : लाख छियालीस हजार चार सौ सत्तात्तर योजन होती है, और साधिक पचास हजार