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वृद्धिः पंक्तौ द्वितीय स्यामाद्य पंडक्तेरनन्तरम् । 'षण्णां प्रत्येकमाणामिन्दूनां च निरूपिता ॥४४॥ तृतीयस्यां तु सप्तानां, वृद्धिः षण्णं ततो द्वयोः । पुनः पङ्क्तौ तृतीयस्यां सप्तानां वृद्धिरेव हि ॥४५॥
प्रथम पंक्तिगत चन्द्र सूर्य से दूसरी पंक्ति में छः-छ: चन्द्र और सूर्य बढ़ते है और तीसरे में सात-सात की वृद्धि समझना । फिर दो पंक्ति में पुनः छः-छः की वृद्धि समझना । फिर तीसरी आए उसमें सात-सात चंद्र सूर्य की वृद्धि समझना । (४४-४५)
तथाहि- पंड्तयोर्द्वयोर्योजनानां, लक्षमन्तरमेकतः। . परतोऽप्यन्तरं तावत्तो लक्षद्वयाधिके ॥४६॥ विष्कम्भे पूर्व विष्कम्भात्, प्रतिपंक्ति विवर्द्धते । लक्षद्वयं योजनानां, तस्यायं परिधिर्भवेत् ॥४७॥ लक्षाणि षड् योजनानां, द्वात्रिंशच्च सहस्रकाः ।
पन्च पन्चाशदाढयानि, चत्वार्येव शतानि च ॥४८॥ - यह इस तरह - दो पंक्ति का एक दूसरे का अन्तर एक लाख योजन का है
और दूसरे तरफ का भी अन्तर एक लाख योजन का है । पूर्व विष्कंभ से दो लाख योजन प्रत्येक पंक्ति में बढ़ती है और उन दो लाख योजन की परिधि छः लाख बत्तीस हजार, चार सौ पचपन (६३२४५५) योजन का होता है । (४६-४८)
पूर्व पूर्व पंक्तिगत परिधिष्वस्य योजनात् । अग्रयाग्रयपंक्तिपरिधिः सर्वत्र क्षेप एष वै ॥४६॥
पूर्व-पूर्व पंक्तिगत परिधि में परिधि मिलाने से आगे से आगे की पंक्ति की परिधि आती है । इस तरह सर्वत्र मिलाना चाहिए । (४६)
अर्थतस्यादिमपंक्ति परिधौ क्षेपतः किल । . द्वितीय पंड्न्क्ति संबंधी, परिधिः स भवेदियान् ॥५०॥
एक पन्चाशता लक्षैरेका कोटी समन्विता । अष्ट सप्तत्या सहस्रा त्रिशैवभिशतैः ॥५१॥