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(१८३) तथोक्तंजीवाभिगमवृत्तीसूर्यसूर्यान्तरसूत्र व्याख्यानने-"एतच्चैवमन्तर परिमाणं सूची श्रेण्या प्रतिपत्तव्यं न वलयाकार श्रेण्ये" ति संग्रहणी लघु वृत्तरप्यय मेवाभिप्रायः ।
यही बात जीवाभिगम सूत्र वृत्ति में सूर्य से सूर्य का अन्तर बताने वाला सूत्र की व्याख्या में कहा है कि - अन्तर का माप सूची श्रेणि से जानना चाहिए, परन्तु वलयाकार से नहीं जानना । और संग्रहणी की लघु वृत्ति में भी यही अभिप्राय
है।
यथागमं भावनीयमन्यथा वा बहुश्रुतैः ।। श्रेयसेऽभिनिवेशोऽर्थे, न ह्यागमाविनिश्चते ॥३३॥
आगम द्वारा भी जिसका निश्चय न हो सके ऐसे अनिश्चत पदार्थों में आग्रह नहीं करना यही श्रेयस्कर है इसे समय में आगमानुसार अथवा बहुश्रुतो द्वारा विचार . पदार्थों का चिन्तन करना चाहिए । (३३)
चन्द्रार्क पंक्ति विषये, नरक्षेत्राद् बहिः किल । . मतान्तराणि दृश्यन्ते, भूयांसि तत्रकानिचित् ॥३४॥
अनुग्रहार्थ शिष्याणां दर्श्यन्ते प्रथम त्विदम् ।। 'दि गंबराणां तत्कर्म प्रकृत्यादिषु, दर्शनात् ॥३५॥ युग्मं ।। ___ मनुष्य क्षेत्र के बाहर चन्द्र और सूर्य की पंक्ति के विषय में बहुत मतान्तर दिखते है । उसमें से शिष्यों के उपकार के लिए कई मत कहे है । उसमें प्रथम दिगम्बर का मत उनकी कर्म प्रकृति ग्रन्थ के आधार पर कहा है । (३४-३५)
लक्षार्धांतिक मे. मोत्तरशैलादनन्तरम् । वृत्तक्षेत्रस्य विष्कम्भः संपद्यते इयानिह ॥३६॥ षट् चत्वारिंशता लक्षैर्मितोऽस्य परिधिः पुनः । कोटयेका पन्चचत्वारिंशता लक्षैः समन्विता ॥३७॥ षट्चत्वारिंशत्सहस्राः शतैश्चतुर्भिरन्विताः । सप्त सप्तत्यभ्यधिका, योजनानामुदीरिताः ॥३८॥