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आते है । आगे के समुद्रों में भी यही करण - संख्या का निर्णय करना चाहिए । (१६ - १६)
ण - रीति अनुसार चन्द्र और सूर्य की
यतो मूलसंग्रहण्यां तथा क्षेत्रसमासके । सर्वद्वीपोदधिगतार्केन्दु संख्याभिधायकम् ॥ २० ॥ करणं ह्येतदेवोक्तं जिनभद्रगणीश्वरैः । न चोक्तमपर किंचित्करुणावरुणालये ॥ २१ ॥
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करूणा के सागर श्री जिनभद्रगणी श्रमा श्रमण ने मूल संग्रहणी में और क्षे समास के अन्दर सारे द्वीप और समुद्रों में रहे सूर्य चन्द्र की संख्या को बताने वाला यही करण कहा है अन्य नहीं कहा है । (२०-२१ )
तथा च मूल संग्रहणी टीकायां हरिभद्र सूरिः - "एवं ऽणं तराणंतरे खित्ते पुष्कर दीवे चोयालं चंदसयं हवइ, एवं शेषेष्वप्य मुनोपायेन चन्द्रा दिसंख्या विज्ञेयेति'' युक्ता चेयं व्याख्या चन्द्र प्रज्ञप्तौ सूर्य प्रज्ञप्तौ जीवाभिगमे च सकल पुष्कर वरद्वीप माश्रित्येत्थमेव चन्द्रादि संख्याभिधानात्, तथाहि तद्ग्रन्थः- “पुक्खरवर दीवे णं भंते ! दीवे केवइया चन्दा पभासिसु वा पभासंतिं वा पभासिस्संति वा ? गोयम् ! चोयालं चंदसयं पभासिंसु वा पभासंति वा पभासिस्संति वा, चोयालं सूरियाण' सयं तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा ।" इत्यादि ॥
'मूल संग्रहणी की टीका श्री हरिभद्र सूरीश्वर जी महाराज कहते हैं कि इस प्रकार से आगे से आगे के क्षेत्र में पुष्कर वर द्वीप में जैसे एक सौ चवालीस सूर्य कहे है। वैसे इसी ही उपाय से सूर्य-चन्द्र की संख्या जानना चाहिए । चन्द्र प्रज्ञप्ति सूर्य प्रज्ञप्ति औ जीवाभिगम सूत्र के अन्दर सम्पूर्ण पुष्करवर द्वीप के आश्रित के यह संख्या कही है इससे यह व्याख्या संगत होती है। उस ग्रन्थ का पाठ इस तरह से 'है - 'हे भगवान ! पुष्करवर द्वीप में कितने चन्द्र प्रकाश करते थे ? प्रकाश करते और प्रकाश करेंगे ? तब भगवन्त ने कहा- हे गोतम ! एक सौ चवालीस चंन्द्र प्रकाश करते थे, प्रकाश करते हैं और प्रकाश करेंगे। एक सौ चवालीस सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे इत्यादि समझ लेना चाहिए ।"