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________________ (१७४) चैत्यानि यानि रचितानि जिनेश्वराणां । .. मन्यान्यपीह भरत प्रमुखैर्जगत्याम् - तेष्वाह तीः प्रतिकृतीः प्रणमामि भक्त्या, . त्रैकालिकीस्त्रिकरणामलतां विधाय ॥३२०॥ . (वसंततिलका). . ___ इस जगत में भरत महाराजा आदि द्वारा अन्य भी जो जिनेश्वर भगवान का चैत्यालय बनाया है और उसमें रही जो अरिहंत परमात्माओं की प्रतिकृतिप्रतिमाएं है उन सबको मनवचन कायारूप त्रिकरण से निर्मलतापर्वत तीनों काल में भक्ति पूर्वक मैं नमस्कार करता हूं । (३२०) . विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रातिष - द्राज श्रीतनयो ऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः,.. काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे।' सर्गोऽम्न्यक्षि मितः समाप्तिमगमत्पीयूष सारोपमः ॥३२१॥ ॥ इति श्री लोक प्रकाशे मानुषोत्तर नगनरक्षेत्र निरूपणो नाम त्रयोविंशति तमः सर्गः समाप्तः ॥ ग्रन्थाग्रं ३४८॥ , जिनकी कीर्ति विश्व को आश्चर्य करने वाली है उन महा महोपाध्याय श्री कीर्ति विजय जी महाराजा के शिष्य रत्न और माता राज श्री और पितां तेजपाल का पुत्र श्री विनय विजय जी महाराज ने निश्चित जगत के तत्वों को प्रकाशित करने के लिए दीपक समान जो यह काव्य ग्रन्थ की रचना की है उसका अमृत का सार रूप यह तेईसवां सर्ग समाप्त हुआ । (३२१) तेईसवां सर्ग समाप्त
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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