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________________ (१७२) "राजप्रश्नीयोपाङ्ग वृत्तौ सूर्याभविमाने तु 'जिणुस्सेहपमाणमेत्ताओं संपलियंकनिसन्नओ' अस्स व्याख्याने जिनेत्सेध प्रमाण मात्रा: जिनोत्सेध उत्कर्षतः पन्चधनुः शतानि, जघन्यतः सप्त हस्ताः, इह तु पन्च धनुः शतानि संभाव्यते इत्युक्त मिति ज्ञेयं ॥" 'राजप्रश्नीय उपांग की टीका में सूर्याभ विमान के सम्बन्ध में कहा है कि जिनेश्वर भगवान की उत्सेध प्रमाण वाली और पद्मासन में बैठी (शाश्वत प्रतिमाएं) है और इसकी व्याख्या करते कहा है कि जिनेश्वर उत्सेध प्रमाण मात्र है, जिनेश्वर देव को उत्कृष्ट से उत्सेध प्रमाण द्वारा ऊंचाई से पांच सौ धनुष्य और जघन्य से सात हाथ से होता है । और यहां तो सूर्याभ विमान में पांच सौ धनुष्य की ऊंचाई संभव होती है । ऐसा कहा है ।' वैमानिक विमानेषु द्वीपे नंदीश्वरेऽपि च । कुण्डले रूचक द्वीपे, प्रासादा ये स्युरर्हताम् ॥३०६॥ योजनानां शतं दीर्घाः पन्चाशतं च विस्तृताः । उत्तुंङ्गाः कथिताः प्राज्ञैयोर्जिनानां द्विसप्ततिम् ॥३१०॥ . वैमानिक के विमानों में नंदीश्वर द्वीप, कुंडल द्वीप और रूचक द्वीप के अन्दर श्री अरिहंत परमात्मा के जो जिनालय है, के सौ योजन लम्बे पचास योजन चौडे और बहत्तर योजन ऊंचे हैं ऐसा पंडित पुरुषों ने कहे हैं। (३०६-३१०) देव कुरुत्तर कुरु सुमेरू काननेषु च । वक्षस्कार भूधरेषु, गजदन्ताचलेष्वपि ॥३११॥ इषुकाराद्रिषु वर्षधरेषु मानुषोत्तरे । असुराणां निवासेषु, ये प्रागुक्ता जिनालयाः ॥३१२॥ . पन्चाशतं योजनानि दीर्घस्तदर्द्ध विस्तृताः । षट्त्रिंशतं योजनानि, ते चोत्तुङ्गाः प्रकीर्तिताः ॥३१३॥ .. देव कुरु-उत्तर कुरु, मेरू पर्वत के वन, वक्षस्कार पूर्वत गजदन्त पर्वत, इषुकार पर्वत, वर्षधर पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, और भवनपति में असुर कुमार निकाय के आवास में जो शाश्वत जिनालय पहले कहे हैं वे पचास योजन लम्बे पच्चीस योजन चौड़े और छत्तीस योजन ऊंचे कहे हैं । (३११-३१३)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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