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लक्षाणि सप्तपन्चाशदित्येवमष्ट कोटयः । त्रैलोक्ये नित्य चैत्यानां, सद्वयशीति शतद्वयम् ॥३०३॥ कोटी शतानीह पन्च दशोपरि च कोटयः । द्विचत्वारिंशदेवाष्ट पन्चाशल्लक्ष संयुताः ॥३०४॥ सहस्राणि च पट् त्रिंशत्साशीतीनि जगत्रये । नौमि नित्य जिनार्चानां, करवै सफलं जनुः ॥३०५॥
इस तीन लोक के अन्दर आठ करोड़ सत्तावन लाख दो सौ बयासी (८५७००२८२) जिन मंदिर आये हुए है और पंद्रह सौ बयालीस करोड अट्ठावन लाख छत्तीस हजार अस्सी (१५४२,५८३६०८०) जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा को मैं हमेशा जन्म सफल करने के लिए नमस्कार करता हूं । (३०३-३०५)
विचार सप्ततिका ग्रन्थ में ८५६४७५३४ चैत्यालय और १४०५२५५२५५४० जिन प्रतिमा कही है । सत्य केवली भगवन्त जाने ।
उत्सेधाङ्गुलनिष्पन्न सप्तहस्तमिताः खलु । शाश्वत्यः प्रतिमा जैन्य, उद्धर्वाधोलोकयोर्मताः ॥३०६॥ तिर्यग्लोके तु निखिलास्ताः पन्चभिर्धनुः शतैः । मिता निरूपितास्तत्व परिच्छेद पयोधिभिः ॥३०७॥
ऊर्ध्व लोक में और अधोलोक में रहे भगवान श्री जिनेश्वर भगवान की शाश्वत प्रतिमाएं उत्सेध अंगुल से सात हाथ प्रमाण की है । जबकि तिमलोक की सब शाश्वती प्रतिमाएं पांच सौ धनुष्य के प्रमाण वाली है । इस तरह तत्वज्ञान के समुद्र समान गंभीर पूर्व महापुरुषों ने कहा है । (३०६-३०७) __ तथाहुः - उत्सेहमंगुलेणं अहउड्ढमसेस सत्तरय णीओ ।
तिरिलोए पणधणुसय सासय पडिमा पणिवयामि ॥३०८॥ इसलिए ही कहा है कि अधोलोक में और ऊर्ध्वलोक में सर्व शाश्वत प्रतिमाएं उत्सेध अंगुल से सात हाथ प्रमाण है, और ति लोक में पांच सौ धनुष्य के मापवाली शाश्वत-प्रतिमाओं को मैं वंदन करता हूं । (३०८)