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________________ (१६५) इत्थं संभाव्य पन्चाश, चतुःशती यदीरिता । कुण्ड चैत्यानां तदत्र, नदी चैत्य विवक्षया ॥२८६॥ यदि चान्यत्र कुण्डेभ्यो नदीषु चैत्य संभवः । तदा वृद्धोक्तिरे वास्तु, प्रमाणं नाग्रहोमम ॥२८७॥ यहां जो चार सौ पचास कुण्ड कहे हैं, उसमें एक-एक जिनालय है और वहां श्री अरिहंत परमात्मा की प्रतिमा चौवन हजार (४५०४१२०=५४०००) है उन सबको मैं नमस्कार करता हूं । पूर्व के महापुरुषों ने इस स्थान पर तीन सौ अस्सी कुंड कहे है । सत्तर महानदियां जो पृथक् कही है, उसके कुण्ड सत्तर होते हैं और उस कुंड में भी चैत्य प्रासाद का संभव है । इस संभावना को आंखों के सामने रखकर ही मैंने नदी के कुण्डों की विवक्षा द्वारा चार सौ पचास कुण्ड कहे हैं । और उसमें एक-एक जिनालय इस तरहं चार सौ पचास जिनालय कहे हैं । परन्तु यदि कुण्ड सिवाय नदी में अन्यत्र भी चैत्यालंय होने का संभव हो सकता है तो उसमें वृद्ध पुरुषों का वचन अनुसार है, उसमें मेरा कुछ भी आग्रह नहीं है । (२८३-२८७) ' अशीतिर्हृद चैत्यानि, प्रत्येकमेक योगतः ।। . अर्चा नव सहस्राणि, तेषु वन्दे शतानि षट् ॥२८॥ . सरोवर अस्सी है और उन प्रत्येक में एक-एक जिनालय होने के कारण सरोवर के जिनालय भी अस्सी है । उसमें शाश्वत प्रतिमा नौ हजार छः सौ (१२०४८०-६६००) है उसको मैं वंदन करता हूं । (२८८) . एवं मनुष्यक्षेत्रेऽस्मिंश्चैत्यानां सर्व संख्यया । शतानि सैकोनाशीतीन्येक त्रिंशद्भवन्ति हि ॥२८६॥ लक्षास्तिस्वो जिनार्चानां तथैकाशीतिमेषु च । . सहस्राणि नमस्यामि, साशीतिं च चतुः शतीम् ॥२६०॥ इस तरह से इस मनुष्य क्षेत्र में चैत्यो की सर्व संख्या तीन हजार एक सौ उनासी (३१७६) होते है तथा शाश्वती जिन प्रतिमा तीन लाख इकासी हजार चार सौ अस्सी (३८१४००) है उसको मैं नमस्कार करता हूँ । (२८६-२६०) वह इस प्रकार :
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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