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एवमा द्वादश स्वर्ग, साशीति प्रतिमाशतम् । ग्रैवेयकादिषु शतं, विंश चानुत्तरावधि ॥२७३॥
इसी ही तरह पद्धति से बारह देवलोक तक एक सौ अस्सी प्रतिमाएं कही है और नवग्रैवयेक से लेकर अनुत्तर विमान तक एक सौ बीस जिन प्रतिमा जानना चाहिए । (२७१) अथ प्रकृतं- पन्चानामितिमेरूणां,पन्चाशीतिर्जिनालयाः।
जिनार्चानां सहस्राणि, दशोपरि शतद्वयम् ॥२७४॥ अब प्रस्तुत बात कहते हैं कि :- पांच मेरू पर्वत के मिलाकर पचासी शाश्वत जिनालय होते है और वहां शाश्वत जिन प्रतिमा दस हजार दो सौ (८५४१२०= १८२००) मूर्ति होती है । (२७४)
शेषेषु सर्व गिरिषु, स्यादेकैको जिनालयः । सहस्रं ते चतुश्चत्वारिंशैस्त्रिभिः शतैयुतम् ॥२७५॥
शेष सभी पर्वतों पर एक-एक शाश्वत जिनालय होता है उसकी संख्या एक हजार तीन सौ चवालीस (१३४४) होती है । (२७५)
सहस्त्रैरेकषष्टयाढयं लक्षमेकं शतद्वयम् । अशीत्याभ्यधिकं चात्र, जिनार्चाः प्रणिदध्महे ॥२७६॥
उक्त एक हजार तीन सौ चवालीस चैत्य में प्रत्येक जिन मंदिर में १२० शाश्वत मूर्तियां होती है। उन शाश्वत मूर्तियों की कुल संख्या एक लाख इकसठ हजार दो सौ.अस्सी (१३४४४१२०=१६१२८०) होती है । इन सब जिनेश्वर भगवान की मूर्तियों को हम वंदन करते हैं। (२७६)
यानि दिग्गज कूटानि, चत्वाररिंशदिहोचिरे । तेष्वेकै कं चैत्यमष्टचत्वारिंशच्छतानि च ॥२७७॥ अर्चनास्तत्र नमस्कुर्मो, भवेच्चैत्यमथैक्कम् । 'दशस्वपि कुरुष्वर्चाशतानि द्वादशात्र च ॥२७८ ॥
यहां जो चालीस दिग्गज कूट कहे है उसके ऊपर एक-एक जिनालय है और उसमें जिनेश्वर की प्रतिमा की संख्या चार हजार आठ सौ (१२०४४०-४८००)