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(१५८) = २१००) होते हैं और जघन्य से दो सौ अस्सी रत्न (२०४१४ = २८०) होते हैं। इसमें पंचेन्द्रिय रत्न और एकेन्द्रिय रत्न इस तरह दो विभाग करे तो जघन्य से एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय रत्न की (प्रत्येक की) संख्या एक सौ चालीस (२०४७ = १४०) की होती है और उत्कर्ष से उस प्रत्येक की संख्या एक हजार पचास (१५०४७ = १०५०) की होती है । (२४४-२४५)
शतं सप्तत्या समेतं, चक्रिजेतव्य भूमयः । . . . भरतादया दशक्षेत्री, विजयाः षष्टियुक् शतम् ॥२४६॥
चक्रवर्तियों के जीतने योग्य षखंडमय भूमियों का एक सौ सत्तर हैं। उसमें भरत आदि दसक्षेत्र है (पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्र) और एक सौ साठ विजय है। पांच विजय और प्रत्येक की ३२ विजय (३२४५ = १६०) इस तरह सर्व मिलाकर कुल एक सौ सत्तर चक्रवती के जीतने योग्य भूमि होती है । : (२४६)
आभियोगिक विद्याभृच्छ्रेणीनां सर्व संख्यया । सा शीतीनि षट् शतानि, विद्याभृतां पुराणि च ॥२४७॥ अष्टादश सहस्राणि, शतानि सप्त चोपरि । अयोध्यादि राजधान्यः शतं सप्तति संयुतम् ॥२४८॥
इस मनुष्य क्षेत्र में आभियोगिक देवों की और विद्याधरों की श्रेणियों की संख्या छ: सौ अस्सी (१७०x४ = ६८०) होते हैं। (एक वैताढ्य पर्वत पर दो अभियोगिक देवों की और दो विद्याधरों की इस तरह चार-चार श्रेणियां होती है।) तथा विधाधरों के नगरों की सर्व संख्या अठारह हजार सात सौ (१७०४११०४ १८७००) है। एक-एक वैताढय पर्वत पर एक सौ दस नगर है तथा अयोध्यादि राजधानियां एक सौ सत्तर है। (२४७-२४८)
द्वे पंक्ति इह चन्द्रणां, द्वे च पंक्ती विवस्वताम् । , एकै कान्तरिता एवं, चतस्र इह पंक्तयः ॥२४६॥ .
इस मनुष्य क्षेत्र में एक-एक से अन्तरित चन्द्र की दो और सूर्य की दो-इस तरह कुल चार पंक्तियां होती है । (२४६)