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________________ (१५७) जम्बू द्वीप प्रज्ञप्त्या अप्यय मेवाभि प्रायः, श्री समवायांगेतु"धायई संडे णं दीवे अडसद्धिं चक्कि विजया य अडसद्धिं रायहाणी ओ, तत्थ णं उक्को सपए अडसद्धिं अरहंता समुप्पज्जिंसुवा ३, एवं चक्कवट्टी समुप्पजिंसु वा ३, एवं बलदेवा वासुदेवा समुप्पज्जिंसुवा ३, पुक्रवरदीवड्ढेणं अडसट्ठि विजया, एवं अरिहंता समुप्प जिंसुवा जाव वासुदेवा," इत्युक्तमिति ज्ञेयं ॥ ____ "जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति का भी यही अभिप्राय है । परन्तु श्री समवायांग सूत्र में तो कहा है कि - "धात की खंड द्वीप में अड़सठ चक्रवर्तियों के विजय होते है और उनकी राजधानी भी अड़सठ होती है । वहां उत्कृष्ट रूप में अड़सठ अरिहंत परमात्मा होते है, इसी तरह चक्रवर्ती, बलदेव, और वासुदेव भी उत्कृष्ट रूप में अड़सठ होते हैं, होंगे और हैं। पुष्कंरार्ध द्वीपार्ध में भी इसी तरह अड़सठ विजय में तीर्थंकर, चक्रवर्ती वासुदेव बलदेव होते हैं, होंगे और हैं । इस प्रकार से कहा है उसे समझना ।" स्यान्निधीनां पन्चदश शती त्रिंशाऽत्र सत्तया । जघन्यतश्चक्रि भोग्यं, तेषां शतमशीति युक् ॥२४२॥ .: इसी मनुष्य क्षेत्र में उत्कृष्ट रूप से निधियों की सत्ता-विद्यमानता पंद्रह . सौ तीस (१७०४६ = १५३०) की होती है उसमें जघन्य से चक्रवर्ती को भोग्य निधियां एक सौ अस्सी (२०४६ = १८०) होती है । (२४२) . उत्कर्षतश्चक्रि भोग्य निधीनां पुनरेकदा । पन्चाशताधिकानीह, स्युः शतानि त्रयोदश ॥२४३॥ एक समय में चक्रवर्ती को भोग्य निधियां उत्कृष्ट रूप में तेरह सौ पचास (१५०४६ = १३५०) होती है । (२४३) उत्कर्षतोऽत्र रत्नानां स्युः शतान्येक विंशतिः । जघन्यतः पुरस्तेषां द्वि शत्यशीति संयुता ॥२४४॥ .. पन्चक्षकाक्ष रत्नानां चत्वारिशं शतं भवेत् । जघन्ये नोत्कर्षतश्च सपन्चाशं सहस्रकम् ॥२४५॥ चक्रवर्ती के जो चौदह रत्न होते है वे उत्कृष्ट रूप में इक्कीस सौ (१५०x१४
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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