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बीस विहरमान श्री तीर्थंकर परमात्मा के नाम इस तरह है :- १- श्री सीमंधर स्वामी, २- श्री युगमंधर स्वामी, ३- श्री बाहु स्वामी, ४- श्री सुबाहु स्वामी, ५- श्री सुजात स्वामी, ६- श्री स्वयं प्रभस्वामी, ७- वृषभानन स्वामी, ८- श्री अनन्त वीर्य स्वामी, ६- श्री विशाल नाथ, १०- श्री सूरप्रभ स्वामी, ११- श्री वज्रधर स्वामी, १२- श्री चन्द्रानन स्वामी, १३- श्री भद्रबाहु स्वामी, १४- श्री भुजंग स्वामी, १५- नेमि प्रभ स्वामी, १६- श्रीतीर्थं नाथ स्वामी अथवा श्री ईश्वर नाथ स्वामी, १७- श्री वीरसेन स्वामी, १८- श्री महाभद्र स्वामी, १६- देवयश स्वामी और २०- श्री अजित वीर्य स्वामी । इन बीस श्री तीर्थंकर परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ नमन करता हूँ और वंदन करता हूँ । (२३२-२३४)
पन्चस्वपि विदेहेशु, पूर्वापरार्द्धयोः किल । एकै कस्य विहरतः संभवाज्जगदीशि तुः ॥२३५॥ दशैव विहरन्तः स्युर्जघन्येन जिनेश्वराः । इत्यूचुः सूरयः केचित् तत्वं वेत्ति त्रिकालवित् ॥२३६॥
यहां कई आचार्य भगवन्त कहते हैं कि - पांच महाविदेह में पूर्वार्ध और अपरार्ध (पश्चिम) में विचरने वाले एक-एक तीर्थंकर परमात्माओं की अपेक्षा से जघन्य दस तीर्थंकर परमात्मा विचरते हैं। इस तरह वे संगति करते हैं । इस विषय में तत्वं-सत्यार्थ तो. त्रिकाल ज्ञानी केवली भगवन्त ही जान सकते हैं। (२३५-२३६) .
तथोक्तं प्रवचन सारोद्वार सूत्रे - "सत्तरिसय मुक्कोसं जहन्नवीसा य दस-य विहरांति' इति ॥'
प्रवचन सारोद्वार सूत्र में भी इसी तरह बात करते कहा है कि - 'उत्कृष्ट रूप में एक सौ सत्तर श्री तीर्थंकर परमात्मा विचरते रहते हैं और जघन्य से बीस अथवा दस श्री अरिहंत परमात्मा विचरते रहते है ।'
उक्ताज्जघन्यादूनास्तु, विहरन्तो भवति न । ततोऽन्येपि यथा स्थानं, स्युर्गार्हस्थ्याद्यवस्थया ॥२३७॥