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________________ (१५४) उत्कर्षतो जिना अत्र, स्युः सप्तत्यधिकं शतम् । ते द्वितीयाहतः काले, विहरन्तोऽभवन्निह ॥२२६॥ इस मनुष्य क्षेत्र में उत्कृष्ट एक सौ सत्तर तीर्थंकर परमात्मा होते हैं, वह इस अव सर्पिणी काल में दूसरे तीर्थंकर परमात्मा श्री अजित नाथ भगवान के समय में एक सौ और सत्तर भगवान विचरते थे । (२२६) । केवल ज्ञानि नामेवमुत्कर्षान्नव कोटयः । नव कोटि सहस्राणि, तथोत्कर्षेण साधवः ॥२३०॥ उसी तरह केवल ज्ञानी की उत्कृष्ट से नौ करोड़ (६००,००,०००) होते है और साधु भगवन्त श्री उत्कृष्ट से नौ हजार करोड़ (६०००,०००००००) होती है। (२३०) यह उत्कृष्ट रूप में कहा है । अब जघन्य रूप में कहते है जघन्य तो विंशतिः स्युर्भगवन्तोऽधुनापि ते । विदेहेष्वेब चत्वारश्चत्वारो विहरन्ति हि, ॥२३१॥ जघन्य रूप में बीस तीर्थंकर परमात्मा विचरते है और इस तरह वर्तमान में भी पांच महाविदेह में चार-चार तीर्थंकर परमात्मा विचरते है । वह इस तरह जम्बूद्वीप में चार धातकी खण्ड में आठ पुष्कराई में आठ कुल बीस कहे है । (२३१) ते चामी- सीमंधरंप स्तौमि युगंधररच, बाहुं३ सुबाहुं४ च सुजात देवम ५। स्वयंप्रभं श्रीवृषभाननाख्य७मनन्तवीर्य पचविशाल नाथम ॥२३२॥ (उपजाति) सूरप्रभं१० वज्रधरं११ च चन्द्राननं१२ नमामि प्रभु भद्रबाहु १३ । भुजङ्ग१४ नेमिप्रभ१५ तीर्थं नाथावथेश्वरं १६ श्री जिनवीर सेनम्१७ ॥२३३॥ (उपजाति) स्तवीमि च महाभद्रं १८ श्री देवयशसं १६ तथा । अर्हन्तमजित वीर्यं२० वंदे विंशतिमर्हताम् ॥२३४॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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