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(१४६) चन्द्र का ग्रहण से युक्त होना अथवा उसकी वृद्धि क्षय होना और काल आदि कुछ भी नहीं होता है । (२००)"
"एतत्सर्वमर्थतो जीवाभिगम सूत्रे चतुर्थ प्रतिपतौ ।" 'ये सारी बात अर्थ से श्री जीवाभिगम सूत्र की चौथी प्रतिपत्ति में कही है।'
क्षेत्रेषु पन्चचत्वारिंशतीह भरतादिषु । अन्तीपेषु षट्पन्चा शत्येवसंभवेन्नृणाम् ॥२०१॥ बाहुल्याजन्म मृत्युश्च, वार्द्धिवर्षधरादिषु । शेषेषु तु नृणां जन्म, प्रायेण नोपपद्यते ॥२०२॥ युग्मं ।। मृत्युस्तु संहरणतो, विद्यालब्धि बलेन वा । गतानां तत्र तत्रायुः क्षयात्संभवति क्कचित् ॥२०३॥
भरत आदि पैंतालीस क्षेत्र - पंद्रह कर्म भूमि और तीस अकर्म भूमि और छप्पन अन्तर द्वीप में ही अधिकतः मनुष्य जन्म लेते है अथवा मृत्यु होती है। शेष स्थानो में समुद्र और वर्षधर,पर्वत (अढाई ) द्वीप में रहे दो समुद्र और अढाई द्वीप । में रहे सारे पर्वतों में मनुष्यों का जन्म प्रायः नहीं होता है । जब कि वहां मृत्यु संभव हो सकता है । क्योंकि वहां समुद्र और पर्वतों में देव द्वारा अपहरण होने से • अथवा तो विद्या या लब्धि के बल से मनुष्य गया हो, और यदि वहां आयुष्य का क्षय हो गया हो तो वहां मृत्यु का संभव है । परन्तु ऐसी बातें कभी बनती है । (२०१-२०३)
अथैतस्मिन्नरक्षेते, वर्ष क्षेत्रादिसंग्रहः । क्रियते सुख बोधाय, तदर्थोऽयं ह्यपक्रमः ॥२०॥ अध्यौं द्वाविह द्वीपौ, द्वावेष च पयोनिधी । भरतान्यैरवतानि, विदेहाः पन्च पन्च च ॥२०५॥ एवं पन्च दश कर्म भूमयोऽत्र प्रकीर्तिताः । 'देवोत्तराख्याः कुरवो, हैरण्यवत रम्यके ॥२०६॥
हैमवतं हरिवर्ष, पन्च पन्च पृथक् पृथक् । ... सर्वाष्यपि त्रिंशदेवं भवंत्य कर्मभूमयः ॥२०७॥