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किं त्वेतयोर्भद्रसालवनयोरायतिर्भवेत् । 'लक्षद्वयं पंचदश, सहस्राणि शतानि तु ॥१७६ ॥
अष्ट पन्चाशानि सप्त, पूर्व पश्चिमयोर्दिशोः । . प्रत्येकं दक्षिणोदीच्योः स्याद्वयासस्त्वयमे तयोः ॥१८०॥ द्विसहस्त्र्येकपन्चाशा, योजनानां चतुःशती ।
अष्टा शीत्या योजनस्य, भक्तस्यांशाश्च सप्ततिः ॥१८१॥ पुष्कराध के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में रहे दो मेरुपर्वत सर्व प्रकार से धातकी खंड में रहे मेरूपर्वत के समान ही है, केवल यहा रहे पुष्करार्ध के मेरु पर्वत के पास के भद्रशाल वन की पूर्व पश्चिम की लम्बाई दो लाख पंद्रह हजार सात सौ अट्ठावन (२१५७५८) योजन की है । और दक्षिण उत्तर की चौड़ाई दो हजार चार सौ इकावन योजन और सत्तर अठासी अंश (२४५१- ७०/८८) योजन की है । (१७८-१८१)
उपपत्ति स्त्वत्र प्राग्वत्.-. .
यहां पर उसकी सिद्धि पूर्व के समान समझना । अर्थात भद्रशाल वन की पूर्व पश्चिम की लम्बाई को अठासी (८८) से भाग देने से भद्रशाल वन की दक्षिण-उत्तर की चौड़ाई आती है और दक्षिण व उत्तर की चौड़ाई को ८८ अठासी से गुणा करने से जो संख्या आती है वह भद्रशाल वन की पूर्व-पश्चिम की लम्बाई को जानना ।।
शेषा त्वत्र नन्दनादिं वनवक्तव्यताऽखिला । धातकीखण्डमेरूभ्यां, पुनरुक्तेतिनोच्यते ॥१८२॥
यहां पुष्करार्ध द्वीप के दो मेरूपर्वत का जो भी नन्दन वन आदि का वर्णन है, वह धातकी खंड के मेरूपर्वत समान ही होने से यहां पुनः नहीं कहा है । (१८२)
जम्बू द्वीपो महामेरूश्चतुर्भिर्मेरूभिः श्रियम् । ___ धत्ते तीर्थंकर इव, चतुर्भिः परमेष्ठिभिः ॥१८३॥
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