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(१३७)
सहस्राणि सप्तचत्वारिंशा पन्चशती तथा । योजनानामंशशतं षण्णवत्या समन्वितम् ॥१३८॥
तथा उसका मध्य विस्तार चौंतीस लाख चौबीस हजार आठ सौ अट्ठाईस . योजन और सोलह अंश (३४,२४,८२८ + १६/२१२) प्रमाण है । और बाह्य विस्तार इकतालीस लाख अठासी हजार पांच सौ सैंतालीस योजन और एक सौ छियानवें अंश (४१, ८८५४७- १६६/२१२) प्रमाण जानना । (१३७-१३८)
सहस्राणि योजनानामेकोनविंशतिस्तथा । स चतुर्नवतिः सप्तशती क्रोशस्तथोपरि ॥१३६॥ विष्कम्भः प्रति विजयं प्रत्येकमर्द्धयोर्द्वयोः । योजनानां द्वे सहस्रे, वक्षस्काराद्रि विस्तृतिः ॥१४०॥
यहां पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में प्रत्येक विजयों का विस्तार उन्नीस हजार सात सौ चौरानवे (१६७६४) योजन और एक कोस का जानना और प्रत्येक वक्षस्कार पर्वत का विस्तार दो हजार योजन का जानना । (१३६-१४०) . प्रत्येकमन्तर्मद्यश्च, शतानिपन्च विस्तृताः ।
स्वरूपं सर्वमत्रान्यद्धातकी खण्डवद्भवेत् ॥१४१॥
प्रत्येक विजय में रही अन्तर्नदियों का विस्तार पांच सौ योजन का है । और शेष सारा विदेह क्षेत्र का स्वरूप धातकी खंड के समान जानना । (१४१)
अष्टानां वनमुखाना, विस्तृतिः स्याल्लधीयसी । एकोमविंशति भवाश्चत्वारो योजनांशकाः ॥१४२॥
इस महाविदेह में रहे आठो वनमुखो का जघन्य विस्तार चार- उन्नीस अंश ४/१६ योजन प्रमाण का है । (१४२)
एकादश सहस्राणि, योजननां शतानि षट् । साष्टाशीतिनि चैतेषां, विस्तृतिः स्याद्रीयसी ॥१४३॥
और इसका उत्कृष्ट विस्तार ग्यारह हजार छ: सौ अठासी (११६८८) योजन प्रमाण का है । (१४३)