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उपवर्षधरं गुर्वी, लध्वी च सरिदन्तिके । तेषां चतुर्णा कालोदबहिभार्गस्पृशां भवेत् ॥१४४॥ चतुर्णां तु नरनगासन्नानां विस्तृति र्गुरुः । शीता शीतोदान्तिकेऽन्या, नीलवन्निषधान्तिके ॥१४५॥
कालोदधि समुद्र के बाहर के विभाग का स्पर्श करने वाले चार वन मुखो का उत्कृष्ट विस्तार वर्षधर पर्वत (निषध-नीलवंत) पास में है । जबकि जघन्य विस्तार शीता और शीतोदा नदी के पास में है। और मानुषोत्तर पर्वत के अभ्यन्तर विभाग को स्पर्श करने वाले चार वनमुखों का उत्कृष्ट विस्तार शीता-शीतोदानदी के पास में है तथा निषध-नीलवंत पर्वत के पास में जघन्य विस्तार है । (१४४-१४५)
पूर्वापरं भद्रसालवनायामः समन्वितः । मेरू विष्कम्भेण सह, गर्भभागात्मको भवेत् ॥१४६॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि लक्षाश्चतस्त्र एव च । योजनानां नवशती, निर्दिष्टा षोडशोत्तरा ॥१४७॥
मेरू पर्वत के विस्तार के साथ में भद्रशाल वन की पूर्व पश्चिम की लम्बाई चार लाख, चालीस हजार, नौ सौ सोलह (४४०६१६) योजन की होती है। (१४६-१४७)
षोडशानां विजयानां, व्यास संकलणात्वियम् । तिस्रो लक्षा योजनानां सहस्राणि च षोडश ॥१४८॥ . सप्त शत्यष्टोत्तराऽथ, वक्षस्कार महीभृताम् । अष्टानां तत्संकलना, स्युः सहस्राणि षोडश ॥१४६॥ षण्णमन्तर्नदीनां तु, व्याससङ्कलना भवेत् । सहस्राणि त्रीणि वन मुखयोरूभयोस्त्वियम् ॥१५०॥ षट् सप्तति स्पृक् त्रिशती, सहस्रास्त्यक्षि संमिताः। द्वीपव्यासोऽष्ट लक्षाणि, सर्व संकलने भवेत् ॥१५१॥
सोलह विजय के विस्तार का कुल जोड़ करते उसकी संख्या तीन लाख सोलह हजार सात सौ आठ (३१६७०८) योजन की है और आठ वक्षस्कार पर्वत