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________________ (१३१ ) हरिकान्ता पुनर्याति, कालोदं हरिवर्षगा । पूर्वार्द्धादपरार्द्धात्तु, याति सा मानुषोत्तरम् ॥१०१॥ "जबकि हरिकान्ता नदी में विपरीत है । पूर्वार्ध के हरिवर्ष में रही हरिकान्ता नदी कालोद समुद्र में जाकर मिलती है और पश्चिमार्ध हरिवर्ष में रही हरि कान्ता नदी मानुषोत्तर पर्वत में जाती है । (१०१) नद्यो र्ह रिसलिलयो र्ह रिकान्ताख्ययोयपि । तयोर्नारीकान्तयोश्च तथैव नरकान्तयो: ॥१०२॥ इत्यष्टानामापगानां, विष्कम्भो हद निर्गमे । भवेच्छतं योजनानामुण्डत्वं योजन द्वयम् ॥१०३॥ पर्यन्ते च योजनानां सहस्त्रमिह विस्तृतिः । उण्डत्वं च योजनानां, विशतिः परिकीर्तितम् ॥१०४॥ दो हरि सलिला, दो हरिकान्ता, दो नारीकान्ता, और दो नरकान्ता नाम की . इन आठों नदियों का विस्तार सरोवर निर्गम स्थाने में एक सौ योजन का होता है । और वहां गहराई दो योजन की होती है । तथा पर्यन्त (समाप्ति) स्थान पर उसकी चौड़ाई एक हजार योजन की है और गहराई बीस योजन की कही है । (१०२-१०४) · विष्कम्भायामतः कुण्डान्येतासां विस्तृतायताः । 'ष्टयाढयानि योजनानां शतानीह नव श्रुते ॥१०५॥ इन आठों नदियों के प्रपात कुंडों की लम्बाई चौड़ाई नौ सौ साठ योजन है। इस तरह जिनेश्वर भगवन्त ने आगम में कहा है । (१०५) अष्टाविंशं शतं द्वीपाश्चैतासां विस्तृतायताः । जिह्विका विस्तृतोद्विद्धाश्चांसा मूल प्रवाहवत् ॥ १०६॥ इन आठों प्रपात कुंडों में रहा द्वीप एक सौ अट्ठाईस योजन की लम्बाई चौड़ाई वाला होता है और इन आठों नदियों की जिह्विका का विस्तार और गहराई मूल प्रवाह समान ही होती है । (१०६) शैलात्ततः परं क्षेत्रं, हरिवर्षं विराजते । तद्गन्धापातिवैताढयेनान्चितं विस्तृतं मुखे ॥ १०७॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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