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________________ (१२६) मुखे लक्षं योजनानां, षटषष्टिं च सहस्रकान् । एकोनविंशां त्रिशती, षट् पन्चाशल्लवास्ततम् ॥८८॥ इस हैमवत क्षेत्र का प्रारंभ विस्तार एक लाख छियासठ हजार तीन सौ उन्नीस योजन और छप्पन लव (१६६३१६५६/२१२) योजन का है । (८८) .. लक्षद्वये योजनानां सहस्राणि चतुर्दश । एक पंचाशानि ततं, मध्येऽशान् षष्टि युक्शतम् ॥८६॥ उस क्षेत्र का मध्य विस्तार दो लाख चौदह हजार, इकावन योजन और एक सौ साठ अंश (२१४,०५१ १६०/२१२) का है । (८६) अन्ते शतान् सचतुर शीतीन् सप्त सहस्रकान्.। एकषष्टिं द्वि लक्षीं च द्वापन्चाशल्लवांस्ततम् ॥६०॥ इस क्षेत्र का अन्तिम विस्तार दो लाख इकसठ हजार सात सौ चौरासी योजन और बावन अंश (२,६१,७८४- ५२/२१२) का है । (६०) जम्बू द्वीप स्थायिवृत्त वैताढयैः सद्दश यथा । धातकीखंडस्थवृत्तवैताढयाः सर्वथा तथा ॥१॥ अत्रापि वृत्ता वैताढयाः, पूर्वोक्तैः सद्दशाः समे । शब्दापाति प्रभृतयः प्रत्येतव्या मनस्विभिः ॥६२॥ - जम्बू द्वीप में रहे वृत्त वैताढय पर्वत के समान धातकी खंड के शब्दपाती आदि वृत्त (गोलाकार) वैताढय पर्वत है । बुद्धिशाली पुरुषों को वृत्त वैताढय पर्वत पूर्वोक्त वृत्त वैताढय पर्वत समान ही जानना । (६२) द्वाभ्यां चतुर्भिरष्टाभिर्योजननैरन्तरं क्रमात् । स्वापगाम्यां शब्दगन्धापातिमेरूमहीभृताम् ॥६॥ ____ अपने-अपने क्षेत्र में से बहती नदियां शब्दापाती वृत्त वैताढय पर्वत से दो योजन दूर होती है । गन्धापाती वृत्त वैताढय पर्वत से चार योजन दूर होती है, और मेरू पर्वत से आठ योजन दूर होती है । (६३) .. विकटापातिनोर्माल्यवतोस्तथान्तरं क्रमात् । स्व स्व क्षेत्रापगाभ्यां द्वे, योजने तच्चतुष्टयम् ॥६४॥ शमा
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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