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________________ (१२४) १४२३०२४६ बाह्य मनुष्य क्षेत्र परिधि ३५५६८४ पर्वत का विस्तार ३५५६८४ पर्वत का विस्तार ११३४४७७३ मध्य ध्रुव राशि १३८७४५६५ बाहर की ध्रुव राशि इस तरह मूल, मध्य अथवा बाह्य क्षेत्र का विस्तार जानने के लिए मूल ध्रुवराशि को और बाह्य ध्रुवराशि को दो सौ बारह के भाग से क्षेत्र का मूल, मध्य और बाह्य विस्तार आता है । "वर्ष वर्षधर भाग कल्पनात्वत्र घातकी खण्डवद् ज्ञेया।" यहां वर्ष क्षेत्र और वर्षधर पर्वत के भाग की कल्पना की धात की खंड की तरह जानना चाहिए। द्वादशद्वि शतोत्थास्ते, येऽत्रांशा योजनोपरि । . क्षेत्राणामब्धिदीश्यादीरन्तश्चगिरे र्दिशि ॥६१॥ यहां कहे दो सौ बारह अंश है वह योजन की ऊपर कहे अनुसार ही क्षेत्रों की आदि कालोदधि समुद्र तरफ और अन्त मानुषोत्तर पर्वत तरफ जानना । (६१) तत्र याम्येषु कारस्योभयतोऽप्यर्द्धयोर्द्वयोः । एकैकमस्ति भरतं, स्व स्व स्वर्ण गिरेर्दिशि ॥२॥ वहां पुष्करार्ध में दक्षिण दिशा के इषुकार पर्वत से दोनों तरफ के पुष्करार्ध में पूर्वार्द्ध और पश्चिमार्ध अपने-अपने मेरूपर्वत की दिशा में एक-एक भरतक्षेत्र आया हुआ है । (६२) सहस्राण्येक चत्वारिंशच्छतान् पन्च विस्तृतम् । सैकोनाशीतीन् मुखेऽशशतं च स त्रिसप्ततिः ॥६३॥ इन दोनों भरत क्षेत्र के प्रारंभ का विस्तार इकतालीस हजार पांच सौ उनासी योजन और दो सौ बारह में से उत्पन्न हुए एक सौ तिहत्तर अंश - ४१५७६ १७३/
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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