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________________ (१२३) तीन लाख, पचपन हजार छ: सौ और चौरासी (३५५६८४) योजन जितनी भूमि पर्वतों से रूकी है । (५६) आद्यमध्यान्त्यपरिधौ, प्राग्वदेतेन वर्जिते । द्वादशः द्विशत क्षुण्णे, कल्प्यन्ते प्राग्वदंशकाः ॥६०॥ . क्षेत्र के योजन (विस्तार) की गिनती करने में पूर्व के समान ही पहले श्लोक में कहे योजन की संख्या - आद्य-मध्य और अन्त्य परिधि में से निकाल देने पर और पूर्व के समान ही एक योजन के दो सौ बारह (२१२) अंश कल्पना करना चाहिए (६०) पुष्करार्ध द्वीप में आये पर्वतों का विस्तार इस तरह है : - ४२१० योजन १० कला पूर्वार्ध हिमवंत पर्वत . + ४२१० योजन १० कला पूर्वार्ध शिखरी पर्वत + १६८४२ योजन २ कला पूर्वार्ध महाहिमवंत पर्वत + १६८४२ योजन २ कला पूर्वार्ध रूक्मि पर्वतं + ६७३६८ योजन ८ कला पूर्वार्ध निषध पर्वत . .+ ६७३६८ योजन ८ कला पूर्वार्ध नीलवंत पर्वत - १७६८४२ योजन २ कला पूर्वार्ध पूर्वार्ध पुष्करार्ध के पर्वतों का विस्तार + १७६८४२. योजन २ 'कला पूर्वार्ध पश्चिमार्ध पुष्करार्ध के पर्वतों का विस्तार + २००० : योजन दो इषुकार पर्वत का विस्तार । ..३५५६८४ योजन ४ कला पुष्करार्ध क्षेत्र में इतना क्षेत्र पर्वतों का रोका है । उसके बिना का क्षेत्र जानने के लिए कालोदधि समुद्र की परिधि में से क्षेत्र के योजन निकाल देने के बाद । ६१,७०, ६०५ योजन कालोदधि समुद्र की बाह्य परिधि ३, ५५, ६८४ " रोके क्षेत्र का माप . ८८, १४,६२१ योजन मूल ध्रुवराशि ११७००४२७ मध्य परिधि
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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