SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१२२) यहां इस पुष्करार्ध द्वीप में पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में कालोदधि समुद्र की वेदिका से आगे और मानुषोत्तर पर्वत से पीछे तीन लाख निन्यानवें हजार (३,६६,०००) योजन जाने के बाद एक-एक अद्भुत कुंड है । (५२-५३) अधस्ते विस्तृते स्तोकमुपयुनुक्र मात् । विस्तीर्णे विस्तीर्णतरे, जायमाने शराववत् ॥५४॥ ये दोनों कुंड-सरोवर नीचे से अल्प विस्तृत और क्रमशः ऊपर कटोरे के समान अधिक से अधिक विस्तार वाले होते हैं । (५४) भुवस्तले द्वे सहस्र विस्तीर्ण योजनान्यथ । उद्विद्धे दश शुद्धाम्भोवीचीनिचयचारूणी ॥५५॥ उन कुंड के नीचे भूमीतल में २००० योजन विस्तृत और दंस योजन गहरा है तथा शुद्ध-निर्मल जल के तरंगों की माला से मनोहर है । (५५) .. द्वयोरप्यर्द्धयोर त्रैकै कमन्दरनिश्रयाः । षट् षट वर्षधराः सप्त, सप्त क्षेत्राणि पूर्ववत् ॥५६॥ पुष्करार्ध क्षेत्र के दोनों आधे भाग में एक एक मेरूपर्वत के आश्रित छ:-छः वर्ष धर पर्वत और सात-सात क्षेत्र पूर्ववत् है । (५६) धातकी खण्डस्थ वर्षधरद्विागुण विस्तृताः । भवन्त्यत्र वर्षधर, उच्चत्वेन तु तैः समाः ॥५७॥ इन वर्षधर पर्वत के विस्तार में धातकी खंड के वर्षधर पर्वतों से दो गुणा जानना और ऊंचाई में समान जानना । (५७) एवमत्रे पुकाराभ्यां, सहवर्षमहीभृताम् । विष्कम्भ संकलनया, नगरूँ भवेदियत् ॥५८॥ इस तरह से इन वर्षधर पर्वतों के और दो इषुकार पर्वतों के विस्तार से रुके हुए स्थान का कुल जोड़ इस प्रकार है । (५८) . तिस्त्रो लक्षा योजनानां पन्चाश देव च । सहस्राणि चतुरशीत्यधिकानि शतानि षट् ॥५६॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy