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________________ (११८) इस तरह शाश्वत जिनालयो को जिन्होंने स्वीकार नहीं किया वे भी इस वाक्य से हारे हैं और इस बात को उत्थापन करने में समर्थ नहीं है । यश्चात् चैत्य शब्दार्थ, विपर्यस्यति वातकी । तस्याप्येतच्चारणर्षिनमस्यावाक्यमौषधम् ॥३१॥ चैत्य शब्द का अर्थ जो वायुदोष वाला मनुष्य अलग करता है, उनके भी चारण ऋषियों के द्वारा चैत्य नमस्कार का वाक्य औषध समान है । अर्थात् इस प्रकार ये चैत्य नमस्कार के शब्द के अर्थ को वे क्या करेंगे? (३१) ... नहींदृशास्तपः शक्ति लब्धैतादृशलब्धयः । ... बिना जिनादीन् वन्दन्ते, सम्यक्त्वभ्रंशभीलुकाः ॥३२॥ .. इस प्रकार के उत्कृष्ट तप से प्राप्त हुई ऐसी लब्धी वाले और सम्यक्त्व के भ्रंश अध:पतन से डरने वाले ये महात्मा श्री जिनेश्वर देव के बिना अन्य किसी को नमस्कार नहीं करते हैं। (३२) . . .. अथ प्रकृतं - अनेन पुष्करवर द्वीपो द्वेधा व्यधीयत । भित्येव गृहमस्यार्द्धद्वयं निर्दिश्यते ततः ॥३३॥ · अभ्यन्तरं पुष्करार्द्ध बाह्यं तदर्द्धमेव च । अर्वाचीनमानन्तरार्द्ध बाह्यमर्द्धं ततः परम् ॥३४॥ अब प्रस्तुत बात कहते हैं - दीवार द्वारा जैसे घर के दो विभाग किये जाते हैं वैसे इस मानुषोत्तर पर्वत से यह पुष्करवर द्वीप के दो विभाग वाला होता है और उस दो अर्ध भाग का निर्देश अभ्यन्तर पुष्करार्ध और ब्राह्य पुष्करार्ध इस तरह अथवा अन्दर का अर्ध भाग और बाहर का अर्धभाग इस तरह से होते हैं। (३३-३४) मनुषोत्तर शैलस्तु, बाह्यार्द्धक्षेत्ररोधकः । .. इत्यान्तरार्द्ध पूर्णाष्टलक्षयोजनसंमितम् ॥३५॥ यह मानुषोत्तर पर्वत बाहर के अर्धक्षेत्र को रोकता है अर्थात् बाहर के क्षेत्र के आठ लाख योजन में उसका समावेश होता है । इससे अन्तरार्ध पूर्ण आठ लाख योजन का होता है । (३५)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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