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________________ (११७) (घात की खंड के २+पुष्का के २ =४) और मानुषोत्तर पर्वत के चारों दिशा के एक-एक शिखर ऊपर एक-एक जिनालय है, जोकि कुल गिरि ऊपर कहे गये हैं वैसे जिनेश्वर देव के भवन समान परिमाण वाले हैं ।' (२६) साक्षान्न यद्यपि प्रोक्तः, सिद्धान्तेऽत्र जिनालयः । । तथाव्यागमवाग्लिः गदनुमानत्प्रतीयते ॥२७॥ 'यतो विद्याचारणर्षितिग्गति निदर्शने । . . विश्रामोऽत्र गिरौ प्रोक्तश्चैत्य वन्दन पूर्वकः ॥८॥ यहां जिनालय की बात सिद्धान्त में साक्षात् स्पष्ट रूप में नहीं कहा फिर भी आगम की वाणी के अनुसार से अनुमान द्वारा यहां जिनालय कहा है । इस तरह प्रतीत होता है । क्योंकि विद्याचारण मुनियों की तिगिति के द्दष्टांत में इस गिरि पर चैत्य वंदन पूर्वक का विश्राम लेने का कहा है । (२७-२८) तथाह पच्चामाङ्गे - विज्जाचारणस्सपणं भंते । तिरियं केवतिए गति विसए पन्नत्ते ? गोयम ! से णं इओ एगेणं उप्याएणं माणु सुत्तरे पव्वए समोसरणं करेइ, माणु०२ त्ता तहिं चेइयाई वदंति ।" पांचवे अंग श्री भगवती सूत्र में कहा है कि - 'हे भगवन्त ! विद्याचारण मुनियो की तिर्यक्गति के विषय में कितनी कही हैं ? इसका उत्तर श्रमण भगवान महावीर देंव देते हैं कि - हे गौतम ! वे यहां से एक उत्पात द्वारा मानुषोत्तर पर्वत पर जाते है और वहां चैत्यवंदन करते है ।' ....... एतच्चास्मिन् विना चैत्यं, कथमौ चित्यमन्चंति ? ततोऽत्र जिन चैत्यानि, युक्तमूचुर्महर्षयः ॥२६॥ यहां चैत्य वंदन करने की बात श्री जिनेश्वर देव के चैत्य बिना किस तरह हो सकता है, इससे यहां जिन चैत्य है, यह बात पूर्व महर्षियों ने योग्य हो कहा है । (२६) एवं शाश्वतचैत्यानां, मान्यत्वं यो न मन्यते । सोऽप्यनेनैव वाक्ये नोत्थातुं नेष्टे पराहतः ॥३०॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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