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कूटैः षोडशभिश्चैष, समन्ताद्भात्यलंकृतः । . नानारत्नमयै रम्यैः प्राकारोऽट्टालकै रिव ॥१८॥
जाम्बूनद (सुवर्ण) मय यह पर्वत विविध प्रकार के मणि एवं रत्नों से बनी हुई लता मंडप, वावड़ियां और मंडप समूह से शोभायमान है । विविध प्रकार के रत्नमय और मनोहर सोलह कूट-शिखरों से चारों तरफ से अलंकृत यह पर्वत गवाक्ष के समान जैसे किला शोभता है वैसा शोभता है ।
त्रयं त्रयं स्यात्कूटानां, पङ्कया दिशा चतुष्टये । द्वादशाप्येकै कदेवाधिष्ठिातानि भवन्त्यथ ॥१६॥
इस पर्वत के चारों दिशा में तीन-तीन कूट-शिखर है और इन बारह शिखर पर एक-एक देवता अधिष्ठित है । (१६)
उक्तं च स्थानाङ्ग वृत्तो - "पुब्वेण तिन्नि कूत्र दाहिण ओ तिन्नि तिन्नि अवरेण । - उत्तरओ तिन्नि भवे चउद्दिसिं माणुसनगस्स ॥२०॥" इति ।
श्री स्थानांग सूत्र की टीका में कहा है कि - पूर्व दिशा के अन्दर तीन शिखर है, दक्षिण में तीन, पश्चिम में तीन और उत्तर दिशा में तीन, इस तरह चार दिशा में मानुषोत्तर पर्वत पर शिखर है । (२०)
. विदिक्षु चत्वारि तत्राग्नेभ्यां रत्नाभिधं भवेत् । ... निवास भूतं तद्वेणुदेवस्य गरूडे शितुः ॥२१॥
इस पर्वत के ऊपर विदिशाओं में चार शिखर है । उसमें अग्निकोन में गरूड निकाय के स्वामी वेणुदेव का रत्न नाम का निवास स्थान है । (२१) - रत्नोच्च ख्यायं नैऋत्यां वेलम्बस्यानिलेशितुः ।
नाम्ना विलम्बसुखदमित्यप्येतन्निरूपितम् ॥२२॥
नैऋत्य कोने में वायु कुमार के इन्द्र वेलंबदेव का रत्नोच्चय नाम का निवास स्थान है, और यह शिखर विलम्बसुखद' के नाम से भी कहा जाता है । (२२) .. पूर्वोत्तरस्यां च कूटं, सर्वरत्नाभिधं भवेत् ।
तत्सुपर्णकु मारेन्द्रवेणुदाले: किलास्पदम् ॥२३॥