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समान ऊंचा है और पीछे के विभाग में एक-एक प्रदेश में अनुक्रम से कम होते नीचे होता जाता है । (१२) अत्रायं संप्रदाय:- द्वे सहस्र चतुश्चत्वारिंशे मूले सुविस्तृतम् ।
शतान्यष्टाष्टचत्वारिंशानिमूर्णिचविस्तृतम् ॥१३॥ एक विंशान् शतान् सप्तदशोच्चं वलयाकृतिम् । प्रकल्प्याद्रिं ततोऽस्याभ्यन्तरार्द्धऽपहृते सति ॥१४॥ विस्तारमधि कृत्याथ, शेषस्तिठति यादृशः । तादृशोऽयं संप्रदायात्, प्रज्ञप्तो मानुषोत्तरः ॥१५॥
यहां परम्परा इस तरह है कि - इस पर्वत के मूल में दो हजार चवालीस (२०४४) योजन और शिखर ऊपर आठ सौ अड़तालीस (८४८) योजन का . विस्तार वाला है तथा सत्रह सौ इक्कीस (१७२१) योजन का ऊंचा वलयाकृति वाला पर्वत कल्पना कर उसमें से आधा विभाग दूर करके विस्तार से जितना शेष रहे उतना यह मनुयोत्तर पर्वत संप्रदाय से कहा गया हैं । (१३-१५)
वसन्त्यस्योर्ध्वंसुपर्ण कुमारा निर्जरा बहिः । मध्ये मनुष्यश्चेत्येष, त्रिधा गिरिरलङ्कृतः ॥१६॥
इस पर्वत के उर्ध्व भाग में सुपर्ण कुमार देव रहते है, बाहर के विभाग में देव निवास करते हैं और अन्दर के विभाग में मनुष्य रहते हैं । इस प्रकार तीन विभाग से यह पर्वत शोभायमान हो रहा है । (१६)
तथोक्तं जीवाभिगम सूत्रे - "माणु सुत्ररस्स णं पव्वयस्स अंतो मणुआ उप्पिं सुवण्णा बाहिं देवा ।" इति ।
श्री जीवाभिगम सूत्र में इस प्रकार कहा है कि - मनुषोत्तर पर्वत के मनुष्यों के ऊपरं सुपर्ण कुमार देव रहते हैं और बाहर विभाग में देव निवास करते
जाम्बूनदमयश्चित्र मणिरत्नविनिर्मतैः । लतागृहै दीर्घिकाभिर्मण्डपै श्चैष मण्डितः ॥१७॥