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________________ (११३) चतुः शतीं योजनानां, त्रिंशां क्रोशाधिका भुवि । . मग्नो मूले सहस्रं च, द्वाविंशं किल विस्तृतः ॥६॥ त्रयो विंशानि मध्येऽयं शतानि सप्त विस्तृतः । चतुर्विशानि चत्वारि, शतान्युपरिविस्तृतः ॥७॥ यह पर्वत चार सौ तीस योजन और एक कोस भूमि के अन्दर अवगाढप्रविष्ट है, पृथ्वी से एक हजार बाईस (१०२२) योजन है मध्यविभाग में सात सौ तेईस (७२३) योजन और शिखर पर चार सौ चौबीस (४२४) योजन विस्तार वाला है । (६-७) यथेष्ट स्थान विष्कम्भ ज्ञानोपायस्तु सारम्यतः । भाव्यो वेलन्धरावासगोस्तूपादिगिरिष्विव ॥८॥ इच्छित स्थान का विस्तार जानने की इच्छा हो तो उसका उपाय वेलंधरावास-गोस्तूप आदि पर्वत के समान ही जानना । (८) अग्रेतनं पादयुग्मं, यथोत्तम्भ्यनिषीदति । पुताभ्यां केसरी पादद्वयं संकोच्य पश्चिमम् ॥६॥ - ततः शिरः प्रदेशे स, विभाति भृश मुन्नतः । .. तथा पाश्चात्यभागे च, निम्नो निम्नतरः क्रमात् ॥१०॥ . .. तद्वदेष गिरिः सिंहोपवेशनाकृ तिस्ततः । • यद्वा यवार्द्ध संस्थानसंस्थितोऽयं तथैव हि ॥११॥ जिस तरह केसरी सिंह आगे के दो पैरों को ऊंचा करके और पीछे के दो पैर को पुत्त-प्रदेश द्वारा संकोच करके बैठता है, उस समय में उसके मस्तक के भाग समान अत्यन्त ऊंचा लगता है और पीछे के भाग में जैसे क्रमशः नीचे-नीचे लगता है, वैसे यह पर्वत भी सिंह की बैठने की आकृति वाला है अथवा आधा जौ . के समान आकृति वाला है । (६-११) समभित्तिः सर्व तुङ्गो, जम्बू द्वीपस्य दिश्ययम् । प्रदेशहान्या पश्चात्तु निम्नतरः कमात् ॥१२॥ यह पर्वत जम्बू द्वीप की दिशा में समान रूप दीवार के समान और एक
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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