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________________ (१०८) कालो महाकाल इतीह देवी, प्राच्य प्रतीच्यार्द्धधृताधिकारो। तदैवतः श्यामतोदकश्च, तदेष कालोद इति प्रसिद्धः ॥२८३॥ (उपजाति) इन समुद्र के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध के क्रम से काल और महाकाल नामक दो देव अधिष्ठायक है, इससे उस देव के नाम के कारण से अथवा तो समुद्र का पानी काला वर्ण होने से वह 'कालोदधि' नाम प्रसिद्ध हुआ है । (२८३.). लक्षांण्यष्टौ विस्तृतो योजनानामु द्विद्धोऽयं योजनानां सहस्रम् ।। आदावन्ते मध्यदेशे समानो द्वेधः सर्वत्रापि पूर्णहुदामः ॥२८४॥ (शालिनी) इस समुद्र का विस्तार आठ लाख योजन का है । गहराई एक हनार योजन की है, और पानी से भरे हुए सरोवर के समान इस समुद्र की भी आदि में अन्त में और मध्य विभाग में इस तरह सर्वत्र गहराई समान ही है अर्थात् सर्वत्र एक हजार योजन की है । (२८४) नचूलान वेला न च क्षोभितास्मिन्न पाताल कुम्भादिका वा व्यवस्था। सदम्भोदमुत्कोदकसवादुनीरः, प्रसन्नश्च साधेर्मनोवद् गंभीरः ॥२८५॥ . (भुजंग प्रयातं) इस तरह समुद्र के पानी के अन्दर लवण समुद्र के समान पानी का ऊंचा शिखर नहीं है, ज्वार नहीं है, और भाटा नहीं है, पाताल कलशादि नहीं है सुन्दर मंघ में से बरसते पानी के समान मधुर पानी वाला है और साधु के मन के समान प्रशांत तथा गंभीर है । (२८५) लक्षाण्यथै कनवतिः परिधिः सहस्राः, स्यात् सप्ततिः पडिह पन्चयुताः शताश्च । , द्वारैश्चतुभिरयमप्यभितो विभाति ।, पूर्वादिदिक्षु विजयादिभिरूक्त रूपै ॥२८६॥ (वसंततिलका)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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