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(१०२) एवं चात्र - श्रियं दधाते द्वौ मेरू, द्वीपस्यास्य कराविव ।
___उदस्तौ पृथुतादर्यान्नभसो निजिघृक्षया ॥२४६॥ . आकाश को पकड़ने की इच्छा से इस धातकी खंड नामक द्वीप में अपनी चौड़ाई के अभिमान से मानो ऊंचे किए दो हाथ न हो इस इस तरह दो मेरू पर्वत शोभायमान हो रहे हैं । (२४६)
यद्वोद्दण्डकरौ बद्ध कच्छौ च नन्दनच्छलात् । स्पर्द्धया संमुखी नौ द्वौ, महा मल्लाविवोत्थितौ ॥२५०॥ ..
अथवा तो नंदनवन रूपी बन्धन किए कच्छ (लंगोट) वाला और दण्ड से युक्त ऊंचे हाथं वाले दो हाथ मानो स्पर्धा से आमने सामने आये हो ! इस प्रकार दो मेरू पर्वत शोभायमान हो रहे है । (२५०) :
... स्थापयत्येकघाऽऽत्मानं, मेर्वेकाङगुंलि संज्ञया ।
जम्बू द्वीपेऽयमेताभ्यां, द्विधा तं स्थापयन्निव ॥२५१ ।।
जम्बू द्वीप में रहे मेरूपर्वत मानो एक अंगुली की संज्ञा से आत्मा को एक रूप में स्थापना करता है, और धातकी खंड दो मेरूपर्वत से आत्मा के दो रूप में स्थापना करता है । (२५१)
अनलं भूष्णुनोत्थातुं द्वीपानानेन वार्द्धकात् । धृतौ दण्डाविवोद्दण्डौ, मेरू द्वाविह राजतः ॥२५२॥
मानो वृद्धत्व के कारण खड़े होने में असमर्थ इस द्वीप में ऊंचे दो दंड रूप दो मेरू पर्वत धारण किया हो इस तरह शोभते है । (२५२)
वर्षाद्रयो द्वादशाष्टषष्टि वैताढय भूधराः ।। दीर्धा अष्टौ च वृत्तास्ते, कान्चनाद्रिचतुः शती ॥२५३॥ वक्षस्काराद्रयो द्वात्रिंशदष्टौ गजदंतकाः । । द्वौ चित्रौ द्वौ विचित्रौ च, चत्वारो यमकाचलाः ॥२५४॥ इषुकारद्वयं चैवं, सर्वाग्रेणात्र भूभृताम् । चत्वारिंशा पन्चशती, चत्वारश्च महाद्रुमाः ॥२५५।।