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(१०१) एवं यदन्यदप्यत्र कूट चैत्यादि नोदितम् । जम्बू द्वीप मेरू वत्तद्वक्तव्यं सुधिया धिया ॥२४३॥
इसी ही तरह जो दूसरा भी कूट-चैत्य आदि यहां कहा नहीं है, वह सब जम्बू द्वीप के मेरू पर्वत के समान ही बुद्धिमान पुरुषों ने जानना चाहिए । (२४३)
एवं यथाऽस्य द्वीपस्य पूर्वार्द्धमिइ वर्णितम् । पश्चिमार्द्धमपि तथा, विज्ञेयम विशेषितम् ॥२४४॥ गजदन्त प्रमाणादौ, विशेषो यस्त कश्चन । स तु तत्तत्प्रकरणे, नामग्राहं निरूपितः ॥२४५॥
इस तरह जैसे-धातकी खंड के पूर्वार्द्ध का वर्णन किया है वैसे ही पश्चिमार्ध धातकी खंड का भी सम्पूर्ण रूप में वर्णन जानना चाहिए । गजदंत पर्वत के प्रमाण आदि में जो विशेषता है वह उस-उस प्रकरण में नाम लेकर निरूपण किया है । (२४४-२४५).
किं च - विजये पुष्कलावत्यां, वप्राख्ये विजये तथा । . वत्से च नलि नावत्यां, विहरन्त्य धुना जिनाः ॥२४६॥
पुष्कलावती, वप्रा, वत्स और नलिनावती इन चार विजयों में हमेशा चार जिनेश्वर भगवन्त विचरण करते हैं । (२४६)
प्राचीनेऽद्धे सुजातोऽर्हन् स्वयं प्रभर्षभाननौ । श्रीमाननन्तवीर्यश्च, पश्चिमा तु तेष्वमी ॥२४७॥ सूरप्रभोजिनः श्रीमान् विशालो जगदीश्वरः । जगत्पूज्यो वज्रश्चन्द्राननः प्रभुः क्रमात् ॥२४८॥
उसमें पूर्वार्ध में क्रमशः सुजात स्वामी, स्वयं प्रभ स्वामी, ऋषभानन स्वामी और श्रीमान अनंतवीर्य स्वामी ये चार तीर्थंकर भगवन्त विचरते है और पश्चिमार्ध में उन विजयों में अनुक्रम से सूर प्रभ जिनेश्वर, श्री विशाल स्वामी वज्रधर स्वामी और चन्द्रानन स्वामी ये चार जगत् पूज्य परमात्मा हमेशा विचरते रहते हैं । (२४७-२४८)