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________________ (१००) का सौमनसवन के पास में मेरू पर्वत का अन्तर विस्तार प्राप्त होता है। (२३५-२३७) अथैतस्माद्वनादूर्ध्वमुत्कान्तैर्मे रूमूर्द्धनि । अष्टाविंशत्या सहस्र्योजनैः पण्डकं वनम् ॥२३८॥ अब इस सौमनस वन से ऊपर अट्ठाईस हजार योजन जाने के बाद मेरू पर्वत के शिखर पर पांडकवन आता है । (२३८) चक्रवाल तया तच्च, विस्तीर्णं वर्णितं जिनैः । चतुर्नवत्याऽभ्यधिकां, योजनानां चतुः शतीम् ॥२३६॥ उस पांडकवन का चक्रवाल चौड़ाई चार सौ चौरानवे योजन का श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है । (२३६) । तच्चैवं- मेरू मस्तक विष्कम्भात्सहस्रयोजनो न्मितात्। मध्यस्थ चूलिका व्यासो,द्वादशयोंजनात्मकः ॥२४०॥ शोध्यते तच्छेषमर्कीकृते पण्डक विस्तृतिः । शेषा शिलादि स्थितिर्या, सा जम्बू द्वीप मेरूवत् ॥२४१॥ वह इस तरह से - मेरूपर्वत के शिखर ऊपर. एक हजार योजन का विस्तार है मध्य में रही चूलिका की बारह योजन निकाल देने के बाद उसे आधा करने से जो संख्या आती है वह पांडकवन का चक्रवाल चौड़ाई जानना और वहां रही शीला आदि की स्थिति जम्बू द्वीप के मेरू पर्वत के समान ही जानना । (२४०-२४१) वह इस प्रकार से १००० योजन में बारह निकाल पर १८८ शेष रहते है उसका आधा ४६४ योजन होता है। तथैवास्य मरकतमयी शिरसि चूलिका । नाना रत्न निर्भितेन, शोभिता जिन सद्मना ॥२४२॥ तथा इस मेरू पर्वत के शिखर ऊपर जो चूलिका है वह मरकत मणिमय है, और वह चूलिका विविध प्रकार के रत्नों से निर्मित श्री जिनेश्वर भगवन्त के भवन से शोभायमान है।
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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