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दोनों तरफ के बाहर का पांच सौ योजन कुल हजार योजन का विस्तार निकाल देने से अन्दर का विस्तार आठ हजार तीन सौ पचास (८३५०) योजन होता है। (२३१)
सहस्राणि पन्च पन्चाशतं पन्चशतीं तथा । अतिक्रम्य योजनानामूर्ध्वं नन्दनकाननात् ॥२३२॥ अत्रान्तरे सौमनसं स्यात्पन्चशत विस्तृतम् । चकवाल तया मेरोग वेयकभिवामलम् ॥२३३॥
नन्दन वन से पचपन हजार पांच सौ योजन ऊपर जाने के बाद में सौमन वन आता है जोकि पांच सौ योजन के विस्तार वाला और गोलाकार होने से मेरू पर्वत की ग्रीवा-गले का निर्मल आभूषण समान शोभता है । (२३२-२३३) .... बहिर्विष्कम्भोऽत्र गिरे. गुरुभिर्गदितो मम् ।
योजनानां सहस्राणि, त्रीण्येवाष्टौ शतानि च ॥२३४॥
यहां मेरू पर्वत की बाह्य चौड़ाई तीन हजार आठ सौ (३८००) योजन की है, इस तरह गुरु महाराज ने मुझे कहा है । (२३४) ..तथाहि - षट् पन्चाशत्सहस्राणि, यान्यतीतानि भूतलात्। .
एषां दशम भागः स्यात्षट् पन्चाशच्छतात्मकः ॥२३५॥ असौ भूतल विष्कम्भात्पूर्वोक्तादपनीयते । तस्थुर्यथोदितान्येवमष्टा त्रिंशच्छतानि वै ॥२३६॥
सहस्त्रापगमे चास्मात्स्यादन्तर्गिरि विस्तृतिः । ... द्वे सहस्र योजनानां, शतैरष्टभिरन्विते ॥२३७॥
. वह इस तरह से :- समभूतल पृथ्वी छप्पन हजार (५६०००) योजन जाने के बाद सौमनसवन नामक वन आता है, इससे उस छप्पन हजार को दसवां भाग छप्पन सौ योजन होता है और उसे मूल विस्तार के नौ हजार चार सौ (६४००) में से निकाल देने से सौमन सवन पास के मेरूपर्वत का बाह्य विस्तार (६४००-५६०० = ३८००) तीन हजार आठ सौ योजन का आता है और उसमें से सौमनस वन के दोनों तरफ पांच सौ योजन (१०००) निकाल देने से अट्ठाईस सौ (२८००) योजन
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