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(६७) उसमें पृथ्वी तल ऊपर भद्रसाल नाम का वन है, वह अत्यन्त गाढ वृक्षों वाला और उसकी लताओं वाला है और सूर्य के त्रास से पीडित को अन्धकार मानो उसके चरण के आश्रय में रहा है अर्थात् वह वन अत्यन्त गीच और गाढ अंधकार वाला है । (२२०)
प्राच्या प्रतीच्या प्रत्येकं तद्दीधैं लक्षयोजनीम् । सहस्रान् सप्तसैकोनाशीतीन्यष्ट शतानि च ॥२२१॥
उस भद्रसाल वन के पूर्व और पश्चिम दिशा में अलग-अलग एक लाख सात हजार आठ सौ उनासी (१०७८७६) योजन लम्बा है ।
प्राच्येऽथवा प्रतीचीने, दैर्येऽष्टाशीति भाजिते । यल्लब्धंसोऽस्य विष्कम्भो,दक्षिणोत्तरणयोः सच ॥२२२॥ योजनानां पन्चविंशाः शता द्वादश कीर्तिताः । तथैकोनाशीतीश्चांशाः शता द्वादश कीर्तिताः ॥२२३॥
पूर्व अथवा तो पश्चिम की लम्बाई को अठासी से भाग देने से जो भी संख्या आती है उसे दक्षिण अथवा उत्तर का विस्तार जानना । वह विस्तार बारह सौ पच्चीस ७७/८८ योजन होता है । यह उत्तर तथा दक्षिण का है । (२२२-२२३)
अष्टा शीत्या गुणि तायामेतस्यां पुनराप्यते । प्राच्या प्रतीच्यां चायामो, यः प्रागस्य निरूपितः ॥२२४॥
इसी ही संख्या को १२२५- ७६/८८ को अठासी से गुणा करने से जो संख्या आती है वह पूर्व और पश्चिम की लम्बाई जानना । जो पूर्व में कह गये हैं। (२२४) वह इस प्रकार :
१२२५४८८ = १०७८००
+ ७६
पूर्व पश्चिम की १०७८७६ योजन लम्बाई होती है । — एवं प्रमाण विस्तारायाममेतद् वनं पुनः । .. गजदन्तमन्दराद्रि नदीभिरष्टधा कृतम् ॥२२५॥