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मूलाद्यदोर्ध्वं गमने, विष्कम्भो ज्ञातुमिष्यते । तदा यावद्यातमूर्ध्वं, तत्संख्या दशभिर्भजेत् ॥२१४॥ लब्धे च मूल विष्कम्भाच्छोधिते यत्तु तिष्ठति । तत्र तावत्प्रमाणोऽस्य, विष्कम्भो लभ्यते गिरे : ॥२१५॥
और नीचे की भूमितल से ऊपर जाते चौड़ाई जानने की इच्छा हो तो योजनादि की जो संख्या हो उसे दस से भाग देने से जो संख्या आती है उसे मूल विष्कंभ (६४००) योजन में से निकाल देने पर जो शेष रहता है उतनी चौड़ाई उस स्थान की जानना चाहिए । (२१४-२१५)
यथोर्ध्वं चतुरशीतौ, सहस्रेषु भुवस्तलात् । . गतेषु चतुरशीतिं सहस्रान् दसभिर्भजेत् ॥२१६॥ लब्धानि चतुरशीतिः शतानि तानि शोधयेत् । ..
भूतल व्यासतः शेषा, साहस्त्री मूर्ध्नि विस्तृतिः ॥२१७॥ . उदाहरण रूप में पृथ्वी तल से ऊपर चौरासी हजार योजन जाने के बाद उसे दस से भाग देने से चौरासी सौ योजन आता है और उसे भूतल का व्यास जो नौ हजार चार सौ (६४००) योजन है उसमें से निकाल देने से एक हजार योजन का विस्तार शिखर के ऊपर आता है । (२१६-२१७) , __ आम्नायोऽयं कर्णगत्या, मेरू निम्नोन्न तंत्वयोः ।
ज्ञेयोऽविवक्षणात्प्राग्वन्मेखला युग्म जातयोः ॥२१८॥
पहले के समान मेरूपर्वत की दोनो मेखलाओं से हुआ मेरू पर्वत की ऊंचाई नीचाई की अपेक्षा करके कर्णगति से यह आम्नाय जानना । (२१८)
श्रियं श्रयत्ययमपि, चतुर्भिश्चारूकाननैः ।
दन्तैरै रावत इव, दैत्यारिरिव बाहुभिः ॥२१६॥
जिस तरह चार दांत द्वारा ऐरावत हाथी शोभता है और चार हाथ से श्रीकृष्ण शोभते है वैसे यह मेरूपर्वत भी सुन्दर चार वनों से शोभता है । (२१६)
तत्र भूमौ भद्र सालवनं तरूलताधनम् । तरणित्रासितं ध्वान्तमि वैतत्पादमाश्रितम् ॥२२०॥