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मध्येऽत्र मेरूश्चतुरशीतिं तुङ्ग सहस्त्रकान् । योजनानां सहस्त्रं चावगाढो वसुधांतरे ॥ २०६॥
धातकी खंड के मध्य में पृथ्वी से ऊपर चौरासी हजार (८४०००) योजन की ऊंचाई वाले और एक हजार योजन पृथ्वी में गहराई वाला मेरूपर्वत है। (२०६)
शतानि पन्चनवति, मूले भूमि गते पृथुः । चतुर्नवतिमेव क्ष्मातले शतानि विस्तृतः ॥ २१०॥
इस मेरू पर्वत का भूमि के अन्दर का विस्तार नौ हजार पांच सौ (६५०० ) योजन का है और पृथ्वी ऊपर उसका विस्तार नौ हजार चार सौ (६४००) योजन है । (२१०)
यत्रोत्तीर्य योजनादौव्यासोऽस्य ज्ञातुमिष्यते ।
तस्मिन् दशहृते लब्धे, सहस्राढये च तत्र सः ॥२११॥
मेरू पर्वत ऊपर से योजन आदि नीचे उतरने के बाद उस स्थान का विस्तार जानने की इच्छा हो तो जितने योजन आदि नीचे उतरे हो उतने योजन • आदि का दस द्वारा भाग देना और उसमें हजार योजन मिलाने से उस-उस स्थान को विस्तार आता है । (२११)
तथाहि - शिरोऽग्राच्चतुरशीतेः, सहस्राणामतिक्रमे ।
व्यासे जिज्ञासित एतान् सहस्रान् दशभिर्भजेत् ॥ २१२ ॥
लब्धान्येवं च चतुरशीतिः शतानि तान्यथ । सहस्राढ यांनि पूर्वोक्तो, विष्कम्भो ऽस्य भुवस्तले ॥२१३॥
वह इस तरह से :- जैसे कि शिखर के अग्रभाग से चौरासी हजार (८४०००) योजन नीचे आने के बाद उस स्थान के विस्तार को जानने की इच्छा • होने से उस चौरासी हजार योजन को दस से भाग देने पर चौरासी सौ (८४००) योजन आते है और उसमें एक हजार योजन मिलाने से पृथ्वी तल के ऊपर का विस्तार पूर्व में कहे अनुसार ही नौ हजार चार सौ (६४००) योजन होता है । (२१२-२१३)