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वीरंजय क्षेत्र समास वृति - लघु क्षेत्र समास की वृत्ति में वन मुख का विस्तार दो गुणा कहा है, परन्तु लवण समुद्र की दिशा में वनमुख की चौड़ाई विपरीत संभव होता है । वह इस तरह से - नदी के पास में दो कला की चौड़ाई
और पर्वत के पास में पांच हजार आठ सौ चवालीस (५८४४) योजन की विस्तृति है और इस प्रकार से परम्परा है।।
बृहत्क्षेत्र समास की वृत्ति में तो यह वन मुख का जघन्य प्रमाण निषध और नीलवंत पर्वत के पास में कहा है । और शीता -शीतोदानदी के पास उत्कृष्ट मान कहा है । इसमें कोई विशेष नहीं है । कालोदधि समुद्र तरफ की दिशा की अपेक्षा से बृहत्क्षेत्र समास की बात संगत होती है।
अथ देवोत्तरकुरुक्षेत्रसीमाविधायिनः । ... गजदन्ता कृतीन् शैलान, चतुरश्चतुरो ब्रुवो ॥१३॥
अब देव कुरु और उत्तर कुरु क्षेत्र की सीमा को करने वाले गजदंत की आकृति वाले चार-चार पर्वतों की बात मैं करता हूं। (१७३)
तत्र देव कुरुणां यः, प्रत्यग् विद्युत्प्रभो गिरिः । तथोत्तर कुरूणां च, प्रत्यग् यो गन्धमादनः ॥१७४॥ द्वावप्यायामत इमौ, षट् पन्चाशत्सहस्र काः । लक्षास्तिस्त्रे योजनानां, सप्तविंशं शत द्वयम् ॥१७५॥
उसमें देव कुरु के पश्चिम में जो विद्युत्प्रभ नामक पर्वत है तथा उत्तर कुरु के पश्चिम में जो गन्धमादन नामक पर्वत है, ये दोनों पर्वत तीन लाख छप्पन हजार दो सौ सताईस (३५६२२७) योजन लम्बे है । (१७४-१७५) ... अथ देव कुरुणां प्रागिरिः सौमनसोऽस्ति यः ।
तथोत्तर कुरुणां प्राक् पर्वतो माल्यवांश्च यः ॥१६॥ एता वायामतः पन्चलक्षा एकोनसप्ततिः । सहस्राणि योजनानां, द्विशत्येकोनषष्टियुक् ॥१७७॥
उसी ही तरह देव कुरु के पूर्व दिशा में सौमनस पर्वत है, और उत्तर कुरु के पूर्व दिशा में माल्यवंत पर्वत है । ये दोनों पर्वत पांच लाख उनहत्तर हजार दो सौ उनसठ (५६६२५६) योजन लम्बे हैं । (१७६-१७७)