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(८८) इदं प्रमाणं पूर्वार्द्ध भावनीयं विचक्षणैः । परार्द्ध क्षेत्र विस्तार व्यत्यासेन विपर्ययः ॥१७॥
जो इस तरह कहा है वह विचक्षण पुरुषों ने पूर्वार्द्ध में समझना, परार्ध में क्षेत्र विस्तार विपरीत होने से उलटा समझना चाहिए । (१७८)
पूर्वाद्धै हि भवेत्क्षेत्रं, प्राच्या विस्तीर्णमन्यतः ।। संकीर्णमपराद्धे तु प्रत्यक् पृथ्यन्यतोऽन्यथा ॥१७६ ॥
पूर्वार्ध के अन्दर-पूर्व दिशा में क्षेत्र विस्तृत होता है और पश्चिम दिशा में संकीर्ण (थोडा-अल्प) होता है । (१७६)
ततः पूर्वाद्धै यदुक्तं मानं प्राचीन शैलयोः । सौमनसमाल्यवतो स्तत्प्रतीचीनयोरिह ॥१८॥ ज्ञेयं विद्युत्प्रभगन्धमादनाद्रयोः परार्द्धके । यत्प्रतीचीनयोस्तत्र, मानं तत्यांच्य योरिह ॥१८१॥
इससे पूर्वार्ध में पूर्व दिशा में सौमनस और माल्यवंत पर्वत का जो प्रमाण कहा था वही यहां पश्चिमार्ध में पश्चिम दिशा के पर्वत का प्रमाण समझना, और पश्चिमार्ध में पश्चिम दिशा के विद्युत्प्रभ और गन्धमादन पर्वत का जो प्रमाण कहा है, वह पूर्वार्ध में पूर्व दिशा के पर्वतों का समझना चाहिए । (१८०-१८१) .
एते चत्वारोऽपि शैलाः स्वस्व वर्षधरान्तिके । सहस्र योजन व्यासास्तनयो मेरूसन्निधौ ॥१८॥
ये चारों पर्वत अपने-अपने वर्षधर पर्वत के पास में एक हजार योजन चौड़ा है और मेरूपर्वत के पास में अल्प विस्तार वाला है । (१८२) .
शेष वर्ण विभागादि, कूट वक्तव्यतादि च । जम्बू द्वीप गजदन्त गिरिवच्चिन्त्यतामिह ॥१८३॥ ...
पर्वत के वर्ण विभाग आदि शेष वर्णन और कुट सम्बन्धी वक्तव्यता जम्बू द्वीप के गजदन्त पर्वत के समान ही यहां विचार कर लेना चाहिए । (१८३)
अथ स्वस्वप्रतीचीनप्राचीन गजदन्तयोः । आयाममानयोोंगे, धनुर्मानं कुरु द्वये ॥१८४॥