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________________ (८६) वक्षस्कार, पर्वत, विजय और अन्तर्नदियां ये सब क्षेत्र की संकीर्णता-सकरास के • कारण से लवण समुद्र की दिशा में संक्षेप है और कालोदधि की दिशा में क्षेत्र की विशालता के कारणा से विस्तृत है । (१६७-१६८) अष्टानां वनमुखानां कले द्वे विस्तृति लघुः । गुरुश्चतुत्वारिंशाष्ट पंचशच्छती भवेत् ॥१६६॥ आठ वनमुख की जघन्य चौड़ाई दो कला की होती है तथा उत्कृष्ट से चौड़ाई अट्ठावन सौ चवालीस (५८४४) योजन की होती है । (१६६) तत्र द्वयोर्द्वयोः पूर्वपरार्द्धवर्तिनोस्तयोः । क्षाराब्धयास सन्नयोः शीता शीतो दासीम्निसा लघुः ॥१०॥ गुरुस्तु नील निषधान्तयोरेतच्चयुक्तिमत् । ... अमीषां वलयाकारं, क्षारब्धिं स्पृशता बहिः ॥१७॥ पूर्व और अपराध विदेह में रहने वाले और लवण समुद्र की नजदीक रहे दोनों वनमुख की शीता और शीतोदा नदी की सीमा में वह जघन्य चौड़ाई होती है और वलयाकार से बाहर से लवण समुद्र को स्पर्श करते तथा निषध और नीलवंत पर्वत केपास में रहे वनमुख की चौड़ाई उत्कृष्ट है और वह युक्ति संगत है । (१७०-१७१) अपरेषां तु कालोद वल याभ्यन्तरस्पृशाम् । लघ्वी निषधनीलान्ते गुर्वी सा सरिदन्तिके ॥१७२॥ कालोदधि के अन्दर के वलय को स्पर्श करने वाले अन्य वन मुख की चौड़ाई निषध और नीलवंत पर्वत के पास में जघन्य है और शीता शीतोदा नदी के पास में उत्कृष्ट है । (१७२) तथोक्तं वीरंजय क्षेत्र समास वृत्तौ -"तथा वनमुखानां विस्तारो द्विगुण उक्तः परं लंवणोदधि दिशि वन मुख पृथुत्वं विपरीतं संभाव्यते, यथा नद्यन्ते कलाद्वयं गिर्यन्ते चतुश्चत्वारिंशदधिकान्यष्टपन्चाशत्छातानि पृथुत्व" मिति संप्रदाय इति ।वृहत्क्षेत्र समास वृत्तौ तुएषां जघन्यं मानं नीलवन्निषधान्ते,शीता शीतोदो पान्ते चोत्कृष्ट मुक्तं, न च कश्चिद्विशेषोऽमिहितः ।
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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