________________
(७६)
शीतोप्येवं नीलवतो, निर्गता केसरिहृदात् । कुण्डोत्थितोत्तर कुरु भद्रसालप्रभेदिनी ॥१२७॥ चतुर्भिर्योजन में रोद॑रस्था पूर्वतोमुखी । प्राग्विदेहान् विभजंतीयाति कालोदवारिधौ ॥१२८॥
इसी तरह के शीता नदी भी नीलवंत पर्वत के केशरी सरोवर में से निकल कर अपने कुंड में गिरती है, और वहां से निकलकर उत्तर कुरु और भद्रशाल वन को दो विभाग में बंटवारा करती और मेरूपर्वत से चार योजन दूर रहकर पूर्व सन्मुख जाती हुई वह पूर्व विदेह के विजयों का विभाग करके कालोदधि समुद्र में प्रवेश करती है । (१२७-१२८)
वाच्योदीच्या रम्यकान्ता, तथैवैखतादिका । क्षेत्रत्रयी शिखयद्या, नीलन्ता च नगत्रयी ॥१२६॥ यथेयं हरिवर्षान्ता, त्रिवर्षी भरतादिका । उक्ता हिमवदाधा च, निषधान्ता नगत्रयी ॥१३०॥ तद्वत्रिधा क्षेत्रमानमादिमध्यान्तगोचरम् । तावदायाम विस्तारा हृदा वर्षधरोपरि ॥१३१॥ तावदेवातिक मणं, नदीनां पर्वतोपरि ।
सैवाकृतिर्माममात्रे, विशेषः सोऽभिधीयते ॥१३२॥ . और इसी तरह से उत्तर दिशा में भी ऐरवत से लेकर रम्यक क्षेत्र के तीन क्षेत्र (ऐरवत, हैरण्यवंत व रम्यक) है तथा शिखरी से नीलवंत तक के तीन पर्वत (शिंखरी, रूकमी; नीलवंत) समझ लेना । जिस तरह भरत क्षेत्र से लेकर हरिवर्ष तक के तीन क्षेत्र कहे हैं (भरत, हिमवतं, हरिवर्ष) और हिमवंत से निषध तक तीन पर्वत (हिमवंत, महाहिमवत निषध) कहे हैं । उसी हो प्रमाण से आदि, मध्य
और अन्तिम क्षेत्र का प्रमाण तीन प्रकार से होता है । और वर्ष धर पर्वत के ऊपर के सरोवरों की लम्बाई और चौड़ाई इसी तरह है । नदियों का पर्वत ऊपर परिभ्रमण क्षेत्र भी इतना ही है, आकृति भी उसी ही तरह है केवल नाम मात्र में जो विशेषता है, उसे हम कहते हैं । (१२६-१३२)