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पर्वत के ऊपर तिगिछि नामक महासरोवर है यह सरोवर आठ हजार योजन लम्बा है और चार हजार योजन चौड़ा है । (११८-१२०)
दक्षिणस्यामुदीच्यां च, हृददस्मान्निरीयतुः । वाहिन्यौ हरि सलिला शीतोदे ते नगोपरि ॥१२१॥ योजनानां सहस्राणि, चतुर्दश शतानि च । अष्टौ द्विचत्वारिंशानि, परिक्रम्याष्ट चांशकान् ॥१२२॥ स्व स्व जिबिकया स्वस्वकुण्डे निपततस्ततः । हरिः स्व वृत्त वैतढया द्योजनद्वितयान्तरा ॥१२३॥ हरिवर्षाभिधं वर्षं द्विधा विदधती सती । .
कालोदाब्धौ निपतति, रमेवाच्युत वक्षसि ॥१२४॥ चतुर्भि कलापकम् ॥
दक्षिण और उत्तर दिशा के अन्दर इस सरोवर से हरि सलिला और शीतोंदा नाम की दो नदियां निकलती है । ये नदियां पर्वत ऊपर. चौदह हजार आठ सौ बयालीस (१४८४२) योजन और आठ अंश आगे जाकर अपने-अपने जिहिका से अपने-अपने कुण्ड में गिरती है । उसके बाद अपने माल्यवंत नामक वृत्त वैताढय पर्वत से दो योजन दूर रहकर, हरिवर्ष नामक क्षेत्र के दो विभाग में बंटवारा करती लक्ष्मी कृष्ण के वक्षस्थल में गिरती है, वैसे ही कालोदधि समुद्र में मिलती है। (१२१-१२४)
शीतोदा च देव कुरु भद्रसाल विभेदिनी । चतुर्भिर्योजनैर्मे रोर्दूरस्था पश्चिमोन्मुखी ॥१२५॥ प्रत्यग्विदेहविजय सीमाकरण कोविदा ।
गोत्र वृद्धव मध्यस्था, यात्यन्ते लवणोदधिम् ॥१२६॥ .. __ और शीतोदा नदी देवकुरु और भद्रसाल वन को भेदन करती मेरू पर्वत से चार योजन दूर रहकर पश्चिमाभिमुख वह नदी पश्चिम विदेह के विजय के ! विभाग करके होशियार मध्यस्थ कुटुम्ब की वृद्धा स्त्री के समान वह लवण समुद्र में जाकर मिलती है । (१२५-१२६)