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पूर्वाभिमुख्यः पूर्वार्द्ध, कालोदे यान्ति निम्नगाः। क्षारोदमपरोन्मुख्योऽपराद्धे तु विपर्ययः ॥६३॥ आसामित्युक्तो विशेषः प्रसङ्गाल्लाघवाय च । तत्र तत्र नाम मात्रं, स्थानाशौन्याय वक्ष्यते ॥४॥
पूर्वार्ध धातकी खंड की पूर्वाभिमुखी नदियां कालोदधि समुद्र जाकर . मिलती है, और पूर्व धातकी खंड की ही पश्चिमाभिमुखी नदियां लवण समुद्र में मिलती है एवम् पश्चिमार्ध धात की खंड में इससे विपरीत जानना । ये बात नंदियों सम्बन्धी विशेष थी इसलिए यहां प्रसंगोपात कही है । अब उन स्थानों में संक्षेप में ही स्थान शून्य न रहे इसके लिए केवल नाम मात्र से कहा जाएगा । (६३-६४)
अथ प्रकृतं - अथैतस्मात्पाहदान्नद्यस्तिस्रो विनिर्गताः ।
- गङ्गसिन्धुरोहितांशाः, पूर्वापरोन्तराध्वभिः ॥६५॥ तत्र गङ्गा च सिन्धुश्च, पूर्व पश्चिमयोर्दिशोः ।। निर्गत्य स्वदिशोर्गत्वा, यथार्हे पर्वतोपरि ॥६६॥ स्वस्वावर्तनकूटाभ्यां, निवर्त्य दक्षिणामुखे । . . कुण्डे निपत्य विशतः, कालाक्षारोदधी क्रमात् ॥६७॥ रोहितांशा तूत्तरस्यां योजनानि नगोपरि । द्वि पन्चाशां पन्चशती त्रिपन्चाश ल्लवाधिकाम् ॥८॥ अतिक्रम्य निजे कुण्डे, निपत्य योजनान्तरा । शब्दा पाति गिरेः प्रत्यक् प्रवृत्ता लवणोऽ विशत् ॥६॥
अब मूल बात प्रारंभ होती है - इस पद्म सरोवर में से तीन नदियां गंगा, सिन्धु और रोहितांशा निकलती है, जो अनुक्रम से पूर्व पक्षिम और उत्तर दिशा में जाती है उसमें गंगा और सिन्धु ये दो नदियां अपने-अपने पूर्व और पश्चिम दिशा में से निकलकर अपने-अपने दिशा में यथा योग्य रूप में पर्वत ऊपर जाकर, अपने- अपने आवर्तन कूट से मुड़कर दक्षिणाभिमुख कुंड में गिरकर अनुक्रम से कालोदधि और लवण समुद्र में प्रवेश करती है । और रोहितांशा तो उत्तर दिशा में पर्वत पर पांच सौ बावन योजन और तिरपन लव जाकर अपने कुंड में गिरकर