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________________ (६५) मुख विस्तृति वद्भागैर्यथास्वमुपकल्पितैः । * चतुर्दशानां क्षेत्राणां, लभ्या पर्यन्त विस्तृति ॥४६॥ इसी तरह यहां कालोदधि समुद्र के पास में धातकी खंड़ तक परिधि में से पर्वतों से रोके क्षेत्र को निकाल देने पर दो सौ बारह का भाग देने से यथा योग्य आया भाग द्वारा मुख विस्तार के समान ही चौदह क्षेत्र का अंत विस्तार प्राप्त होता है । (४५-४६) . एवं च- वक्ष्यमाणायां क्षेत्रत्रिविधविस्तुतौ । • मा भूत्संमोह इत्येष,आम्नायः प्राक् प्रपञ्चितः ॥४७॥ इस तरह से आगे कहा जायेगा उस क्षेत्र के त्रिविध-तीन प्रकार विस्तारों में पढ़ने वाले को उलझन में पड़ जाए इसके लिए आम्नाय परम्परा की प्ररूपण (कथन) करते हैं। (४७) किं च- कृत्वाऽद्रिरू क्षेत्रं तत्सहस्रद्वितयोज्झितम् । - कर्तव्याश्चतुरशीति-स्तस्याप्यंशा दिशाऽनया ॥४८॥ .: एकैकोऽशो हिमवतोस्तथा शिखरिणोरपि । ‘अंशाश्चत्वारश्च महाहिमवतोश्च रूक्मिणोः ॥४६॥ षोडशांशा निषधयोर्नीलवन्नगयोरपि । एवं चतुरशीत्याऽशैर्वर्षभूधर विस्तृतिः ॥५०॥ अब पर्वतों से जितना क्षेत्र रुका हो उस क्षेत्र में से इषुकार पर्वतों के दो हजार योजन निकाल कर उसे चौरासी से भाग देना और इस तरह से वर्षधर क्षेत्र के समान इसमें से एक-एक अंश हिमवान और शिखरी पर्वत के चार-चार अंश महा हिमवान और रूक्मी पर्वत के सोलह-सोलह अंश, निषध और नीलवंत पर्वत के इस तरह वर्षधर पर्वतों का विस्तार चौरासी अंश प्रमाण है । (पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध धातकी खंड मिलकर होता है) (४८-५०) ... १७८८४२ योजन पर्वतों से रूका हुआ क्षेत्र २००० योजन इषुकार पर्वत के निकाल देना । १७६८४२ योजन शेष रहे । इसको ८४ से भाग देना
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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